डॉ. रामविलास शर्मा जन्मशती समारोह और दो दिवसीय संगोष्ठी का केंद्रीय हिंदी संस्थान के नज़ीर सभागार में उद्घाटन
आरोपित और आयातित
अमरीकी विचारों का वैश्वीकरण इस युग की बड़ी चिंता है-प्रो. मैनेजर पांडेय
“दुनिया भर में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद दलालों के ज़रिए चलता और फलता-फूलता
रहा है. कुछ अनिवासी भारतीय बुद्धिजीवियों की जमात के जरिए यह नए रूप और
तौर-तरीकों के साथ अपनी पैठ बना रहा है. डॉ. रामविलास शर्मा ने साम्राज्यवाद के
खतरों के प्रति न केवल आगाह किया बल्कि इनसे लड़ने की प्रेरणा भी दी. डॉ. शर्मा के
प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम वर्तमान समय में उपस्थित नव-साम्राज्यवाद
के खतरों को पहचाने और उनका सामना करें.”, यह विचार हिंदी के वरिष्ठ आलोचक प्रोफेसर
मैनेजर पांडेय ने केंद्रीय हिंदी संस्थान के नज़ीर सभागार में आयोजित डॉ. रामविलास
शर्मा जन्मशती समारोह की उद्घाटन संगोष्ठी में अपने उद्घाटन वक्तव्य के दौरान रखे.
डॉ. रामविलास शर्मा के साहित्यिक और वैचारिक अवदान की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा
कि आरोपित और आयातित अमरीकी विचारों का वैश्वीकरण इस युग की बड़ी चिंता है जिसकी
वजह से न केवल आज भारतीय भाषाएँ खतरे में हैं बल्कि लोक भाषाओं के अस्तित्व पर भी
गहरा संकट है. डॉ. शर्मा ने परंपरा की पहचान करते हुए हिंदी आलोचना की निजी जातीय
परंपरा को मजबूती के साथ प्रस्तुत किया. कार्यक्रम के उद्घाटन से पूर्व केंद्रीय
हिंदी संस्थान परिसर में स्थापित डॉ. रामविलास शर्मा की प्रतिमा पर स्थानीय एवं
आगंतुक विद्वानों ने माल्यार्पण कर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी. संगोष्ठी के
आरंभ में दयालबाग डीम्ड विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. कमलेश नागर
ने आए हुए विद्वानों और अतिथियों का स्वागत किया. इसके बाद डॉ. रामविलास शर्मा के
भाई और उनके साहित्यिक सहचर मुंशी जी के निधन पर मौन रखकर शोक व्यक्त किया गया.
औपनिवेशिक मुक्ति के विमर्श और डॉ. रामविलास शर्मा विषय पर उद्घाटन सत्र की
चर्चा को विस्तार देते हुए केंद्रीय हिंदी संस्थान के पूर्व निदेशक विख्यात आलोचक
प्रोफेसर शंभुनाथ ने कहा कि आगरा में केवल ताजमहल ही नहीं बल्कि रामविलास शर्मा की
चालीस साल की विराट साहित्यिक साधना भी विरासत के रूप में मौजूद है और यह विरासत
जन-सहयोग से हो रहे इस आयोजन के माध्यम से और भी स्पष्ट एवं प्रबल रूप में उपस्थित
हुई है. राष्ट्रवाद की विचारधारा का आरंभ राममोहन राय से होता है और वह रामविलास
शर्मा के चिंतन में पूर्णता प्राप्त करती है. डॉ. रामविलास शर्मा का स्मरण करते
हुए उन्होंने टिप्पणी की कि रामविलास शर्मा परंपरा की ओर उन्मुख होते हुए भी
रूढ़िवादी नहीं थे. आधुनिकता के पक्षधर होते हुए भी उपनिवेशवादी नहीं थे और
प्रगतिवाद के समर्थक होकर भी यांत्रिक भौतिकवाद से सम्मोहित नहीं थे. वे एक ऐसे
बहुज्ञ चिंतक थे जो भारतीय भाषा, समाज और साहित्य की समस्याओं पर चिंतन
करते हुए ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न छोरों को छूते हैं. उन्होंने अपने कृतित्व के
माध्यम से ज्ञान का डी-कोलोनाइजेशन किया. वे परंपरा की परख के लिए जितना पीछे गए
उतना ही आवेग और ताकत के साथ आगे बढ़कर साम्राज्यवाद के किले पर उन्होंने गोले
दागे. उन्होंने हिंदी-भाषी समाज को उसकी अपनी जातीय पहचान और अस्मिता से रूबरू
कराया. इसलिए आत्मविमोहन के इस दौर में वे आज भी प्रासंगिक हैं और आगे भी रहेंगे.
हाथरस से आए डॉ. रामकृपाल पांडेय ने समकालीन राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विसंगतियों को
रेखांकित करते हुए कहा कि आर्थिक और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के तिलस्म को तोड़ने
के उपाय डॉ. शर्मा के साहित्य में मौजूद हैं. उन्होंने कहा कि एटम को तोड़ना बड़ा
मुश्किल है परंतु जब ऊर्जा को हासिल करना दरकार हो तो ये कोशिश करनी ही होगी. पूरे
विश्व को पूँजीवाद ने तरह-तरह के मुखौटे ओढ़कर गुलाम बनाया है. इस दुश्चक्र को
पहचानने और तोड़ने की चेतना रामविलास जी के कृतित्व से मिलती है.
अंत में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए पटना से पधारे प्रो. रामजी राय ने
मुक्तिबोध का उल्लेख करते हुए कहा कि अपने आजाद देश के बुद्धिजीवियों को जितना
गहराई से देखता हूँ, उतना ही लगता है कि हम अभी तक उपनिवेश में जी रहे हैं.
विभिन्न वक्ताओं के विचारों की विवेचना करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय नवजागरण
के भीतर जो द्वैत है और कठिनतम संघर्ष के बावजूद अंततः समझौतावादी और समावेशी
प्रवृत्ति है, उसे समझना और पहचानना होगा. डॉ. रामविलास शर्मा ने
साम्राज्यवादी संघर्ष के समक्ष राष्ट्रवाद की भूमिका को जिस तरीके से और जिन
संदर्भों के साथ देखा, परखा उसमें उनकी अपनी कुछ सीमाएं हो सकती हैं लेकिन उन
सीमाओं और अंतर्विरोधों को ईमानदारी से स्वीकार कर आगे बढ़ने की जिम्मेदारी हम सब
पर है, यही रामविलास शर्मा के सक्रिय बौद्धिक अवदान के लिए हमारी
सच्ची कृतज्ञता होगी.
कार्यक्रम का समापन पटना से पधारे सांस्कृतिक समूह हिरावल
द्वारा विभिन्न प्रगतिशील कवियों की रचनाओं की संगीतमय प्रस्तुति से हुआ जिसे
उपस्थित विद्वत समाज ने भरपूर सराहा. उद्घाटन कार्यक्रम का संचालन डॉ. प्रियम
अंकित ने किया. भाषा वैज्ञानिक चिंतन और प्रगतिवादी विमर्श के आयामों पर
केंद्रित चर्चाओं के साथ डॉ. रामविलास शर्मा जन्मशती समारोह संपन्न हुआ. दूसरे दिन
सात अक्टूबर को पहला सत्र 'भाषा और समाज' विषय पर केन्द्रित था. ‘भाषा और समाज’ सत्र में बोलते हुए बी.एच.यू. से पधारे डॉ. अवधेश प्रधान
ने रामविलास शर्मा के संदर्भ में खुद रामविलास जी की इच्छा का जिक्र करते हुए कहा
कि उनकी सारी स्थापनाएं भले ही खंडित हो जाएं लेकिन एक आदि भाषा से सभी भाषाओं के
पैदा होने के सिद्धांत का खंडन बच जाए यही काफी होगा. भाषा और समाज के संबंधों की
चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि सामाजिक विकास की मंजिलों के साथ ही भाषा के विकास
को भी देखा जाना चाहिए. इस सत्र में उमाकांत चौबे, डॉ. जितेंद्र रघुवंशी, डॉ. रमेश कुमार, प्रो. प्रदीप सक्सेना और आलोचक श्री
प्रेमपाल शर्मा ने भाषा और समाज के बहुआयामी संबंधों और अध्ययन की समस्याओं पर
प्रकाश डाला.“आज हिंदी आलोचना को इस रूप में विकसित करने की जरूरत है जो
मध्यवर्ग की छद्म प्रगतिशीलता को चुनौती दे सके और अपने समय के सवालों और
चुनौतियों से संवाद कर आलोचना का सही विकल्प बन सके. आज मध्य वर्ग को मस्त वर्ग
में तब्दील करने की तैयारियाँ चल रही हैं. हमें इन कोशिशों को नाकाम करना होगा”, ये बातें डॉ. रामविलास शर्मा जन्मशती
आयोजन समारोह के दूसरे दिन के अंतिम सत्र में अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए इलाहाबाद
से पधारे वरिष्ठ आलोचक प्रो. राजेंद्र कुमार ने कहीं. उन्होंने रामविलास शर्मा के
रचनाकर्म और आलोचना दृष्टि पर टिप्पणी करते हुए कहा कि महान प्रतिभाओं में सदा
अंतर्विरोध रहा है.
डॉ. शर्मा में भी अंतर्विरोध था. हमें उनके अंतर्विरोधों को स्वीकारते हुए अध्ययन की नई दिशाएँ तलाशनी होगी. प्रो. कुमार ने रामविलास के बहुआयामी संघर्ष को रेखांकित करते हुए कहा कि उन्होंने न केवल संघर्ष के बाहरी मोर्चों पर लड़ाई जारी रखी बल्कि प्रगतिवाद के आंतरिक मोर्चे पर भी उन्होंने संघर्ष किया. डॉ. रामविलास शर्मा को याद करने का सही तरीका भी यही है कि हम उनसे लड़ें भी और सीखें भी. बी.एच.यू. से पधारे डॉ. आशीष त्रिपाठी ने अपने वक्तव्य में कहा कि रामविलास शर्मा के आलोचना कर्म मार्क्सवाद और प्रगतिशील आंदोलन के समकालीन संदर्भों के बिना नहीं समझा जा सकता है. उनके समूचे आलोचनात्मक मानस का निर्माण तीस-चालीस दशक के दौरान प्रगतिशील आंदोलन से उपजे सवालों से निर्मित हुआ. चाहे वे भाषा के सवाल हों, परंपरा के या फिर इतिहास के. एक वैकल्पित भारत की खोज के लिए उन्होंने परंपरा के मूल्यांकन का महत्वपूर्ण कार्य किया.डॉ. गोपाल प्रधान ने अपने भाषण में बताया कि रामविलास जी साहित्य को विशुद्ध विचारधारा मानने से गुरेज करते थे. उन्होंने साहित्य और कला के संबंधों की जरूरत पर बल दिया. डॉ. आशुतोष कुमार ने समकालीन संदर्भ में उपनिवेशवाद की उपस्थिति पर राय जाहिर करते हुए कहा कि आज नव उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष को विकसित करने की जरूरत है क्योंकि उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के विरोध का पूराना तरीका अब उतना कारगर नहीं रहा. आगरा विश्वविद्यालय के हिंदी विद्यापीठ के पूर्व निदेशक प्रो. गोविंद रजनीश ने डॉ. रामविलास शर्मा की सौंदर्य दृष्टि पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि उन्होंने कई बार आलोचना के लिए ऐसे पाठों को चुना जो भाव, कला और सौंदर्य बोध की दृष्टि से अपनी रेंज में सर्वश्रेष्ठ नहीं थे फिर भी उनमें एक सहज लोकगंध मौजूद थी और शायद इसीलिए डॉ. शर्मा ने उन्हें अपने विश्लेषण का विषय बनाया.
दो दिन तीन अलग-अलग विषयों पर केंद्रित इस जन्मशती आयोजन समारोह और संगोष्ठी में देश भर से आए विद्वानों ने सहभागिता की. जिनमें साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त कवि वीरेन डंगवाल, कथादेश के संपादक हरिनारायण, कथाकार प्रियदर्शन मालवीय, रानी सरोज गौरिहार, डॉ. कमलेश नागर, डॉ. चंद्रकांत त्रिपाठी, डॉ. सुनीता रानी, डॉ. शशिकांत पांडेय, श्री प्रकाश साव, केशरी नंदन आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही. खास बात यह रही कि पूरा आयोजन बिना किसी सरकारी मदद के सिर्फ जनसहयोग के सहारे किया गया जिसे शहर के बुद्धिजीवी समाज और मीडिया द्वारा काफी सराहा गया.
डॉ. शर्मा में भी अंतर्विरोध था. हमें उनके अंतर्विरोधों को स्वीकारते हुए अध्ययन की नई दिशाएँ तलाशनी होगी. प्रो. कुमार ने रामविलास के बहुआयामी संघर्ष को रेखांकित करते हुए कहा कि उन्होंने न केवल संघर्ष के बाहरी मोर्चों पर लड़ाई जारी रखी बल्कि प्रगतिवाद के आंतरिक मोर्चे पर भी उन्होंने संघर्ष किया. डॉ. रामविलास शर्मा को याद करने का सही तरीका भी यही है कि हम उनसे लड़ें भी और सीखें भी. बी.एच.यू. से पधारे डॉ. आशीष त्रिपाठी ने अपने वक्तव्य में कहा कि रामविलास शर्मा के आलोचना कर्म मार्क्सवाद और प्रगतिशील आंदोलन के समकालीन संदर्भों के बिना नहीं समझा जा सकता है. उनके समूचे आलोचनात्मक मानस का निर्माण तीस-चालीस दशक के दौरान प्रगतिशील आंदोलन से उपजे सवालों से निर्मित हुआ. चाहे वे भाषा के सवाल हों, परंपरा के या फिर इतिहास के. एक वैकल्पित भारत की खोज के लिए उन्होंने परंपरा के मूल्यांकन का महत्वपूर्ण कार्य किया.डॉ. गोपाल प्रधान ने अपने भाषण में बताया कि रामविलास जी साहित्य को विशुद्ध विचारधारा मानने से गुरेज करते थे. उन्होंने साहित्य और कला के संबंधों की जरूरत पर बल दिया. डॉ. आशुतोष कुमार ने समकालीन संदर्भ में उपनिवेशवाद की उपस्थिति पर राय जाहिर करते हुए कहा कि आज नव उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष को विकसित करने की जरूरत है क्योंकि उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के विरोध का पूराना तरीका अब उतना कारगर नहीं रहा. आगरा विश्वविद्यालय के हिंदी विद्यापीठ के पूर्व निदेशक प्रो. गोविंद रजनीश ने डॉ. रामविलास शर्मा की सौंदर्य दृष्टि पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि उन्होंने कई बार आलोचना के लिए ऐसे पाठों को चुना जो भाव, कला और सौंदर्य बोध की दृष्टि से अपनी रेंज में सर्वश्रेष्ठ नहीं थे फिर भी उनमें एक सहज लोकगंध मौजूद थी और शायद इसीलिए डॉ. शर्मा ने उन्हें अपने विश्लेषण का विषय बनाया.
दो दिन तीन अलग-अलग विषयों पर केंद्रित इस जन्मशती आयोजन समारोह और संगोष्ठी में देश भर से आए विद्वानों ने सहभागिता की. जिनमें साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त कवि वीरेन डंगवाल, कथादेश के संपादक हरिनारायण, कथाकार प्रियदर्शन मालवीय, रानी सरोज गौरिहार, डॉ. कमलेश नागर, डॉ. चंद्रकांत त्रिपाठी, डॉ. सुनीता रानी, डॉ. शशिकांत पांडेय, श्री प्रकाश साव, केशरी नंदन आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही. खास बात यह रही कि पूरा आयोजन बिना किसी सरकारी मदद के सिर्फ जनसहयोग के सहारे किया गया जिसे शहर के बुद्धिजीवी समाज और मीडिया द्वारा काफी सराहा गया.
सत्रों का संचालन अनुपम श्रीवास्तव और डॉ. अवधेश त्रिपाठी ने किया. कार्यक्रम का संयोजन दयालबाग डीम्ड विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रवक्ता डॉ. प्रेमशंकर ने किया.