५ नवंबर २०११ को रायगढ़ इप्टा द्वारा २५ दिवसीय कार्यशाला में तैयार प्रवीण गुंजन के निर्देशन और कुमारदास टी एन के कला निर्देशन में ’ओह ओह इंडिया’ की प्रस्तुति देखने का सौभाग्य मिला. नाटक की पहली प्रस्तुति और वो भी अपने कथ्य और कहन के अंदाज़ में नयी ऊर्जा से भरपूर. साम्प्रदायिकता,भ्रष्टाचार, भूख, आत्महत्या, शोषण और स्त्रियों की दुर्दशा को अपने तमाम साजो-सामान से उच्चारित करता ये नाटक देश की अर्थव्यवस्था के बढ़ाते ग्राफ, महाशक्ति बनाने की दिशा में बढे कदम और विकास के प्रतिमान को ध्वस्त करता कई सवाल खडा करता है. जिसके जवाब हमें ढूँढने नहीं बल्कि देने हैं. ज़रुरत है खतरनाक चुप्पी को तोड़ने की. सदियों से लीक पे चली आ रही स्थापनाओं को विस्थापित करने की. सच है जब दर्द की इंतहा होती है ज़िन्दगी तमाम नकाब को बेनकाब करने पे उतारू ह़ो जाती है उसी बेनकाबी के उत्सव में ये नाटक अपना प्रभाव छोड़ने में सफल हुआ है.
'ओह ओह ये है इंडिया' नाटक के नाम से ही प्रतिध्वनित ह़ो रही है देश के कच्चे-पके चिट्ठे की पोल .... मंच पे १७ रंगकर्मी वृंदावन यादव, अपर्णा श्रीवास्तव, भरत निषाद, बाबू खान, ब्रजेश तिवारी, अभिषेक शर्मा, सुजाता सिंह, पूनम ध्रुव, आलोक बेरिया, सुचिता सिंह, साकेत कर्ष, दिलीप खैरवार, सिद्धांत बोहिदार, ऐश्वर्या राय, अमित दीक्षित, दीपक यादव और पार्थ राय ने अपनी सार्थक और सधी उपस्थिति का आभास दिया. कार्यशाला में विशेष सहयोग रहा उषा आठले, अजय आठले, विनोद बोहिदार और हितेश पित्रोदा का.
ऐसा नहीं है कि इससे पहले इस तरह की समस्याओं पे कोई प्रस्तुति नहीं हुई पर इस प्रस्तुति की ख़ास बात ये है कि इसमें नवाचार यानी मल्टीमीडिया ध्वनि+दृश्य तकनीक के साथ-साथ जीवन की सम-विषम धडकनों को सहेजती, काल की, अतीत की स्मृतियों को उभारती मानवीय संवेदनाओं से भरी कविताओं का समन्वय है. मुक्तिबोध, अदम गोंडवी, कैफी आज़मी और प्रज्ञा रावत की कविताओं का सार्थक प्रयोग नाटक के कथ्य सम्प्रेषण में प्रभावकारी रहा.
कई तरह के प्रतीकों [यथा हाथ में बंधी पट्टी, लालटेन, फैशन परेड बोतल और पिंजरे का] का सहज समावेश है जो हमें आज के समय में सोचने के लिए मजबूर करता है जबकि हम परोसी हुई वैचारिक दुनिया में जी रहें हैं वहाँ ये नाटक हमें कई अंधेरी गुफाओं में यूं सैर कराता है जैसे हम नाटक में नहीं बल्कि अपने वर्तमान को जी रहें हैं कभी किसानों की आत्महत्या के रूप में, कभी साम्प्रदायिक दंगो के रूप में, कभी जातिवादी संकीर्णताओ के बीच तो कभी इन सबके साथ स्त्रियों को दमित कर अपनी क्रूरता के बीच. सच! सुस्त विचार प्रक्रिया को झकझोरने का एक विश्वास भरा आह्वान रहा निर्देशक का. आज जब ये बहस गाहे-बगाहे नाटक करने वालों के बीच होती रहती है कि नाटक के लिए नाटककार कुछ नहीं कर रहे, नयी स्क्रिप्ट के न होने का रोना रोकर अपने कर्तव्य को निर्देशक और नाट्यकर्मी पूरा करते हैं वैसे समय में आपसी बहस को रंग दिशा देने का सराहनीय प्रयास रहा रायगढ़ के नाट्यकर्मियों और निर्देशक का.
एक और ख़ास बात ये रही कि कहीं भी नाटक दर्शकों की विचार-भूमि में घुसपैठ किये बगैर कि समस्याओं से कैसे निपटना है मात्र सवाल खड़े करता है वो भी नए ज़माने की लय में डोट डोट डोट कह के. ये इस सदी का भयावह सच है कि आने वाले समय में हम किसी बात, किसी काम या किसी विचार पे डोट यानी पूर्णविराम नहीं लगायेंगे बल्कि डोट डोट डोट लिख अपनी वैचारिक और संस्कृतिक अपंगता की दिशा को रौशन कराते चले जायेंगे. बड़ी सूक्ष्मता से हर समस्या के प्रश्न के समय ये शब्द डोट, डोट, डोट इस्तेमाल किये गए हैं किसी विष बूझे तीर की तरह.
मुक्तिबोध पुरुस्कार से सम्मानित लेखक, कवि, आलोचक और इप्टा के संरक्षक प्रभात दा [त्रिपाठी] भी उपस्थित थे जिनके सान्निध्य में रायगढ़ इप्टा लगातार विचार-विमर्श करता रहता है....