पत्नी के लिए
वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप
तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो
तुम्हारे आंचल से कच्चे दूध की गंध आती है
तुम्हारे भरे स्तनों पर तुम्हारे शिशु के गुलाबी होंठ हैं
अगाध तृप्ति से भर गया है उसका चेहरा
मुझे देखता पाकर आंचल से उसे ढँक लेती हो
और कहती हो नज़र लग जाएगी
शायद तुमने पहचान लिया है मेरी ईर्ष्या को
बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में
लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती ही वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ
तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा.
वाद विवाद संवाद ::१
‘पत्नी के लिए’ कविता को लेकर फेसबुक के ग्रुप ‘कविओं की पृथ्वी’ में लंबा संवाद चला. लगभग २०० के आस पास प्रतिक्रियाएं आईं. स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों पर यह बातचीत अर्थगर्भित है. इससे स्त्री और पुरुष दोनों की मानसिकता और मनोविज्ञान पर प्रकाश पड़ता है. कविता की भूमिका और उसके प्रभाव का भी पता चलता है. फेसबुक के बाहर के मित्रों ने यह बहस देखने की इच्छा प्रकट की है. उनके लिए
कितनी ईमानदार कविता है ये ..
पत्नी की सरलता , उसका सहज प्रेम , कुछ दुनियावी रंगों से भरी उसकी व्यस्तता .. और पत्नी में उस स्त्री को देखना ..
एक बोल्ड कविता है ..
कहीं पत्नी से प्रेम करती और उसकी सहजता पर एक छुपी माफ़ी मांगती .
पत्नी की सरलता , उसका सहज प्रेम , कुछ दुनियावी रंगों से भरी उसकी व्यस्तता .. और पत्नी में उस स्त्री को देखना ..
एक बोल्ड कविता है ..
कहीं पत्नी से प्रेम करती और उसकी सहजता पर एक छुपी माफ़ी मांगती .
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम.........abhi haal mein hi kisi ne prem shabd ke istemaal par eitraaz jaahir kiya tha.....aur aap ne kaha tha ki kavita shabdon mein punh arth bharti hai......is kavita ne aapki baat par muhar lagai hai.......badhai.....
बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज...
तुम में ही मिलती ही वह स्त्री....
नारी तुम केवल श्रद्धा हो ...आभार
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज...
तुम में ही मिलती ही वह स्त्री....
नारी तुम केवल श्रद्धा हो ...आभार
संवेदनाओं से भरी एक ईमानदार अभिव्यक्ति जो कभी दिल छू लेती है तो कभी आश्चर्य से भर देती है......सुंदर रचना के लिए बधाई....
क्षमा कीजिए , आज कल मेरा हर सुर बेसुरा ही लग रहा है. अगर स्त्री के घरेलूपन,पालतूपन ,प्रश्नहीन समर्पण और प्रचंड मूर्खता को ही प्रेम कहते होंगे , तो यह जरूर एक ईमानदार प्रेम कविता है. !
ek stree ki moorkhta ko keval ek stree banke hi samjha jaa sakta hai ashutosh ji.. ek din aapne ek post lagai thi striyan purusho se shreshthhatar thi.... to ye moorkhta usi shreshthhatar hone ka parinaam hai.. ham bahut baar ankh band isliye nhi karte ki dekhna nhi chahte balki isliye bhi ki doosra shayad nazar na mila paaye... Ashutosh Kumar ji
stree ki drishti se prem hi hai, purush ki drishti se shoshan
aur ganit
kaash ye drishtri pariwartan sambhav hota....
Leena , kavita ki antim panktiyan dekhiye.. wahaan purush kis roop mein apni galati ko rakh raha hai.. kavita stri ki mahanta se adhik apni galati ke liye kshma yachna jaisi lagti hai.. is drishti se ye kavita prem mein kshma ko adhik ujagar kar rahi hai..purush ki kamzori ko BLODLY kahati hui kavita .. jabki stri apne ghar-sansaar mein khoyi hai. shayad working ladies bhi bachche hone ke baad isi trah udasin ho jaati hain .. unka prem vasna nahi rahata . wah bachchon aur parivar ke sath vrihatar roop mein falit hota hai.. stri ki isi udasinta mein chhipe prem ko saamne rakh rahi hai kavita.
gaurtalab hai ye panktiyan..
लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती ही वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ
तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा.
लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती ही वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ
तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा.
ji Aparna ji mai sahmat hoon lekin phir bhi galti maan lene ka samay purush hi nirdharit karta hai aur usme shayad vikalp se adhik uska 'comfort zone ' me laut aana nihit hota hai.. aur kshma kahni gahre me sookshm roop se stree ko ' for granted lene ' ka bhav bhi rahta hai.
ise kisi kamzor stri ka kahan n samjha jaaye ... ye panktiyan poore manovigyan ko saamne rakh rahi hai..
antim pankti ki vyanjana isi for granted ko sweekarna hai..
sahi kehti ho leena, kyon stri kyon purush ka jaana hota hai, shayad isliye ki patni ek dhanv hai laut ke aane ke liye, aur kyon vo manta hai ki vo sadaiv sweekarya hai....kintu salaam karti hoon is imaandar abhivyakti ko to darshati hai vyast stri ke parti purush ki mansikta, tanik bhatakne ki gunjaish se pehle apne vivek ka prayog karne ki samajhdari.....
@aur aparnaji vakai antim panktiya ise ingit karti hain
Anju Sharma..kavita kam se kam bold acceptance to hai .. varna purush mein itna naitik saahas kahaan ...
इसी कारण तो अरुण जी की पोस्ट में उनका समर्थन न कर पाया और नारी तुम केवल श्रद्धा हो कह कर नारी का ही समर्थन किया जब कि आज का पुरुष भी बदल रहा है मनोविज्ञान को समझ रहा है,संकीर्णता विलुप्त हो रही है ..वह क्यूँ दोषी होता है ?क्यूँ चारित्रिक कमी बहुधा पुरषों में देखने में आती है ????
lekin is acceptance ki vajah se use sahi hone ka prman patr nhi diya jaa sakta
ji Aparna Manoj ji ye sahas kam hi logon mein milta hai, adhiktar to kewal shikayat karte reh jate hain
theek aisi hi sthiti ek stri ki bhi ho sakti hai ... yadi wah laut aaye to kya use samaj aur purush se acceptance milegi ???
दी !आज के दौर में ज़रूर मिलेगी ...
shayad kabhi nahi apke comment ne ARTH film ke end ki yaad dila di, aparnaji stri ko ye swatantra kabhi uplabdh nahi hone wali....
akarshan dono ke liye samaan hain ... dampaty se bahar yadi koi akarshan use khinchta hai aur wah use sweekar kar laut aati hai to kya sthitiyan rahengi????
Ashishji ye kewal apke vichar hain yahan sampurna purush jati ki charcha ho rahi hai
lekin anju ashish aaj ke purush samaj ke hisse ka prtinidhitv karte hain
ye jeewansathi ke manan ka vishay hai kya vo itna udar hai
यदि इमानदारी की बात है तो हर क्षण और हर पल का साझा होना चाहिए ....
haan leena kintu janana chahungi kitne purush unse sehmat hain
haan.. ye iimandaari kitni sajha ho paati hai??
dampaty se bahar jaati stri ke prati kis trah ki awdharna samaj banata hai ??
main agar apne ko bold kahoo to ye meri abhivyakti ho sakti hai sampurna stri jati ki nahin
iske liye aapko apni wall par post daalni chahiye anju kyonki yaha ke sadasy seemit hain
मैं अपनी बात करता हूँ और अपने इर्द -गिर्द की समाज में हर तरह के लोग होते हैं ...
ji haan Ashishji thik kaha aapne hum kewal apni baat kar sakte hain....
Ashish .. aapki baat sahi hai.. isi trah samaaj mein vyapat sankeerntaon ko door kiya jaa sakega... ek se do .. phir poora samudaay.. stri aur purush dono...
haan yadi vaicharik star par barabari hogi tabhi use jeevan mein utara ja sakega
Aparna ji dampaty se bahar jaati stree ko aaj bhi kulta hi maana jaata hai.. metro cities ko chhod diya jaaye .. kyonki yahan itna exposure hai aur kaam ke fied bhi itne hai ki striyon aur purusho ka vivahottar akarshan swabhavik aur ek had tak sweekary hai..
ye kavita isi sajha jivan ki iimandari ko saamne laati hai..jiske baare mein ashish ne kaha..
Leena ne jo kaha akshrashay satya hai....hamare samaj mein stri ko apne akarshan ko feel karne, jeene ya vyakt karne ki swatantrta nahi hai......
khair jo ho kavita bahut sundar hai..
aur Ashishji agree exceptions are always there....lekin un par sarv sahmati kabhi nahi ho sakti
Leena Malhotra Rao gagan gill ki dost par kuchh kavitaen samalochan par padhi thin. usise prabhavit hokar ek series likhi thi hamne .. wahaan ki ek kavita yahaan share kar rahe hain... DOST yahaan ek stri ka AAtm hai.. jisese waha sab sajha kar rahi hai..
Aparna Manoj kavita yahaan hai::
दोस्त से :: २
किसे ढूंढ़ रही है तू
दाम्पत्य की सीढियां उतरते-चढ़ते
अपने हाँफते जीवन के मुखड़े के ठीक पास
कौनसा समंदर ढूंढ़ रही है तू ?
कौन -सा शोर
कौन-सी लहर
जिसमें तैर जाए दूर तक एक मछली
वीरान टापुओं के पार
वनस्पतियों के पार
नमक के भुर-भुर झड़ते पहाड़ों के अवसादों के पार
समुद्री झागों से होते
जहाजों -नौका के पार
किसे ढूंढ़ रही है लड़की ?
उस ज्वार को
जो ले जाए चाँद तक
और फिर लौट आये अपने शोर में
तेरे हाथ में
कौन -सी किताब ?
कौन -से पन्ने
क्या पढेगी तू ?
क्या रचेगी तू ?
किसे सोचते
क्या देगी ?
क्या लेगी ?
चलते हुए किनारों के ऐन पास
ज़ोखिम लेगी तू ?
पानी के बाहर
तेरे लिए ऑक्सीजन कहाँ
बोल तेरी जिजीविषा
पैर रख पाएगी
समंदर के बाहर ?
रेत में धंस पाएगी तू ?
उग पाएगी तू ?
एक तेरा दोस्त है
खूब जीवट वाला
बिलकुल तेरे जैसा
तुझसे बातें करता
तेरे हाँफते जीवन के मुखड़े के एकदम पास
गहरे तल में तेरी परछाईं पर अपनी परछाई छापता
दोस्त के साथ
परछाई लांघ पाएगी तू ?
और मछली मय-दोस्त किनारे के पार थी
बचा था
तो एक क्षितिज समंदर पर फैलता
एक दिगंत
समंदर के अतल में गिरता
नैमिष भर दुनिया का हाहाकार
चूर होती भर्त्सनाएं..
धरती तब भी घूम रही थी
तेईस डिग्री पर झुकी
और मौसम बदल रहे थे समय के साथ .
Leena Malhotra Rao
दोस्त से :: २
किसे ढूंढ़ रही है तू
दाम्पत्य की सीढियां उतरते-चढ़ते
अपने हाँफते जीवन के मुखड़े के ठीक पास
कौनसा समंदर ढूंढ़ रही है तू ?
कौन -सा शोर
कौन-सी लहर
जिसमें तैर जाए दूर तक एक मछली
वीरान टापुओं के पार
वनस्पतियों के पार
नमक के भुर-भुर झड़ते पहाड़ों के अवसादों के पार
समुद्री झागों से होते
जहाजों -नौका के पार
किसे ढूंढ़ रही है लड़की ?
उस ज्वार को
जो ले जाए चाँद तक
और फिर लौट आये अपने शोर में
तेरे हाथ में
कौन -सी किताब ?
कौन -से पन्ने
क्या पढेगी तू ?
क्या रचेगी तू ?
किसे सोचते
क्या देगी ?
क्या लेगी ?
चलते हुए किनारों के ऐन पास
ज़ोखिम लेगी तू ?
पानी के बाहर
तेरे लिए ऑक्सीजन कहाँ
बोल तेरी जिजीविषा
पैर रख पाएगी
समंदर के बाहर ?
रेत में धंस पाएगी तू ?
उग पाएगी तू ?
एक तेरा दोस्त है
खूब जीवट वाला
बिलकुल तेरे जैसा
तुझसे बातें करता
तेरे हाँफते जीवन के मुखड़े के एकदम पास
गहरे तल में तेरी परछाईं पर अपनी परछाई छापता
दोस्त के साथ
परछाई लांघ पाएगी तू ?
और मछली मय-दोस्त किनारे के पार थी
बचा था
तो एक क्षितिज समंदर पर फैलता
एक दिगंत
समंदर के अतल में गिरता
नैमिष भर दुनिया का हाहाकार
चूर होती भर्त्सनाएं..
धरती तब भी घूम रही थी
तेईस डिग्री पर झुकी
और मौसम बदल रहे थे समय के साथ .
Leena Malhotra Rao
kavita bahut sundar hai aparnaji
vah Aparnji sachmuch bahut sunder
prashn ye hai ki is kavita ke bhav ko kya koi stree kshma yaachna sahit apne pati se share kar sakti hai
yahan main bhi apni ek kavita ko uddrit karna chahungi....
खिंची है कई लक्ष्मण रेखाएं मेरे द्वार पर,
अबूझ, अचूक, कुछ स्पष्ट और कुछ धुंधली सी,
एक लक्ष्मण रेखा वह है
जो खिंची थी सीता के कुटिया के द्वार,
शिष्टाचार, लोकाचार या लक्ष्मण का व्यवहार,
क्यों न समझ पाया जानकी का हृदय,
कि अंतहीन अँधेरा है उस पार,
इस ओर पिंजरा है सुनहरा,
हैं घर द्वार , और रिश्तों का कारोबार,
और सामने से आ रही है रौशनी कि चमकार,
जो दूर से चुंधिया रही है सीता के नयनो को,
पर क्या बीच की खाई कभी कर पायेगी वह पार,
एक और लक्ष्मण रेखा है जिसे पाया था द्रौपदी ने,
कृष्ण की मैत्री और अर्जुन के प्रेम में,
और उस रेखा के पांच सिरों से बिंधी थी कृष्णा,
हर दिन बंटती रही पन्च हिस्सों में,
धर्मराज के धर्म, भीम के बल और
अर्जुन के शौर्य से गहराती रेखा,
रेखा जो विस्तृत हुई दुशाशन के हाथो तक,
दुर्योधन के मिथ्याभिमान और
भीष्म के मौन तक,
रह गयी एक सिरे पर अपने प्रश्नों के साथ
छली हुई द्रौपदी,
एक रेखा है जिसे पाया था तसलीमा नसरीन ने,
लांघना चाहती थी जो संस्कारों और 'लज्जा' की दहलीज़,
क्यों मुखर हुआ मौन सह न पाया है समाज कदाचित,
रेखा जिसके एक सिरे पर है
दबी, कुचली, मौन अबला की छवि,
जो भाती है समाज के ठेकेदारों को,
और दूसरा सिरा जा पहुंचा भटकता
इस देश से उस देश,
ठोकर, फतवे और शरण के
पत्थरों से सजे किनारों को,
खिंची है कई लक्ष्मण रेखाएं मेरे द्वार पर,
और मैं ढून्ढ रही हूँ अपनी लक्ष्मण रेखा,
जो शायद अस्पष्ट है और धुंधली भी है!
अबूझ, अचूक, कुछ स्पष्ट और कुछ धुंधली सी,
एक लक्ष्मण रेखा वह है
जो खिंची थी सीता के कुटिया के द्वार,
शिष्टाचार, लोकाचार या लक्ष्मण का व्यवहार,
क्यों न समझ पाया जानकी का हृदय,
कि अंतहीन अँधेरा है उस पार,
इस ओर पिंजरा है सुनहरा,
हैं घर द्वार , और रिश्तों का कारोबार,
और सामने से आ रही है रौशनी कि चमकार,
जो दूर से चुंधिया रही है सीता के नयनो को,
पर क्या बीच की खाई कभी कर पायेगी वह पार,
एक और लक्ष्मण रेखा है जिसे पाया था द्रौपदी ने,
कृष्ण की मैत्री और अर्जुन के प्रेम में,
और उस रेखा के पांच सिरों से बिंधी थी कृष्णा,
हर दिन बंटती रही पन्च हिस्सों में,
धर्मराज के धर्म, भीम के बल और
अर्जुन के शौर्य से गहराती रेखा,
रेखा जो विस्तृत हुई दुशाशन के हाथो तक,
दुर्योधन के मिथ्याभिमान और
भीष्म के मौन तक,
रह गयी एक सिरे पर अपने प्रश्नों के साथ
छली हुई द्रौपदी,
एक रेखा है जिसे पाया था तसलीमा नसरीन ने,
लांघना चाहती थी जो संस्कारों और 'लज्जा' की दहलीज़,
क्यों मुखर हुआ मौन सह न पाया है समाज कदाचित,
रेखा जिसके एक सिरे पर है
दबी, कुचली, मौन अबला की छवि,
जो भाती है समाज के ठेकेदारों को,
और दूसरा सिरा जा पहुंचा भटकता
इस देश से उस देश,
ठोकर, फतवे और शरण के
पत्थरों से सजे किनारों को,
खिंची है कई लक्ष्मण रेखाएं मेरे द्वार पर,
और मैं ढून्ढ रही हूँ अपनी लक्ष्मण रेखा,
जो शायद अस्पष्ट है और धुंधली भी है!
Ashish Pandey Arun Dev se vishesh roop se uttar chahungi mai mere prashn ka .. kya ve use aise hi andekha karenge.. khas taur par vah purush jo metro me nhi hai.. jo buddhi jivi nhi hai
लीना जी यदि मेरी पत्नी हो तो वह ज़रूर शेयर करेगी ...
aisa aap sochte hain ek baar unse bhi poochiyega
ashish vo share karengi.. aap andekha karenge ?
metro se bahar ..
और मेरा शहर मेट्रो में नहीं आता ...और मेरी पत्नी मुझसे दूर कहीं और हैं और जब भी मिलते हैं हर क्षण साझा होता है प्रश्न आपका नहीं विश्वास का है ...गलतियों मानव स्वाभाव है...
swbhav ki nhi andekha karne ki baat hai
जी वह गोंडा में हैं जो कि अयोध्या के पास है
purush ka lautna bhi kya kisi bachne ki sthiti ka soochak nahi...
tumhe kisi aur naam se pukare... andekha karoge ?
kam se kam yahan to sahmati nahi sambhav hai
Aparna vah ek stree aisa soch paati hai kyonki vah maan hoti hai.. lekin purush pita hokar bhi kya apni patni ko kabhi pita ki tarah maaf karta hai \l
Hypocrisy ...
yes\l
yeah but true
i am unmarried yet... no comments please...
Aparna bahas yahi samaapt hoti hai.. hypocrisy.. kavita ke bhav bahut sundar hain arun ji ko bahut badhai.. \l
पुरुषों और घामडॉ से ही पाला पड़ता है उनका डिग्री कालेज में वह भी हिन्दी साहित्य एम्.ए.के लड़को को पढाना वो भी कस्बाई मानसिकता आप न माने यह आपकी सोच ...
meri aur se bhi
पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर किसी समस्या का निवारण संभव नहीं ....
Ashishji kshama kijiye kya kinhi 5 aur purush mitro ka samarthan pa sakte hain aap is mudde par...... \l
aapke vicharo ki main kadra karti hoon kintu yaad rakhiye ve kewal aapke vichar hain.....kintu jo baten maine, leena aur aparnaji ne kahi 100 striyan uska samarthan kar dengi, kripya anyatha na le par is behas ka koi ant sambhav nahi hai
Leena Malhotra Rao is kavita ke madhyam se Arun isi hypocrisy ko dikhana chahte hain.... hamne shauru se yahi arth grahan kiya..
ji haan Aparnaji naman hai unki sweekarokti ko aur sahas ko........
मैं अपनी ही बात कर रहा था...मैं हूँ तो अन्य लोग भी होंगे जो इस तरह सोचते होंगे ..बदलाव की बयार धीरे धीरे आती है ..
बातें उस स्वरूप में हो ना पायीं धड़ा धड़ कमेंट्स की वजह से खैर फिर कभी.... \l
अरुण की कविता एक सामान्य देश , काल और समाज , परिवेश की कविता है .. जिसे हम मध्यम वर्ग कहेंगे . इस मध्यम वर्ग ने अपने माप-दंड किस आधार पर तय किये ? पर यही मध्यम वर्ग सबसे बड़े दिखावे का शिकार भी है . एक ओर सूडो बौद्धिकता काम करती है तो दूसरी ओर उसीका विरोध हम करते हैं . परिवार के मायने समय के साथ बदले .. संयुक्त से एकल परिवार की ओर हम बढ़े.. पर कई विसंगतियां हैं जिन पर हम चुप हैं . पुरुष ओर स्त्री के सहज संबंधों पर सभी एकमत तो होते हैं , लेकिन पुरुष की सामंतवादी व्यवस्था के चक्रव्यूह से स्त्री मुक्त नहीं हुई है ..
पुरुष का लौटना .. प्रेमिका से फिर पत्नी की ओर ..
इसमें प्रेमिका की भूमिका क्या है ?
ओर पत्नी को क्या न्याय मिलता है ? विचारणीय है ...
जिस हिंस्त्र वन से कवि लौटता है वह वन किसका है ? क्या ये हिंसा स्त्री ही करती है ?
कविता निसंदेह अच्छी लगी .. लेकिन रह-रहकर कई प्रश्न भी आते रहे .. तो इनका उत्तर तो मिलना चाहिए ..
पुरुष का लौटना .. प्रेमिका से फिर पत्नी की ओर ..
इसमें प्रेमिका की भूमिका क्या है ?
ओर पत्नी को क्या न्याय मिलता है ? विचारणीय है ...
जिस हिंस्त्र वन से कवि लौटता है वह वन किसका है ? क्या ये हिंसा स्त्री ही करती है ?
कविता निसंदेह अच्छी लगी .. लेकिन रह-रहकर कई प्रश्न भी आते रहे .. तो इनका उत्तर तो मिलना चाहिए ..
isliye ise dhadadhad comments n kahen... soch samjh kar hi prashn uthaye gaye hain.. uttar apekshit hain.. pratyasha hai ...
दी !क्षमा ...मेरा आशय वो नहीं था ...
आप एक प्रश्न के उत्तर के लिए व्यवस्थित हो उससे पहले एक और प्रश्न ...
अतः ऐसा लिख गया
आप एक प्रश्न के उत्तर के लिए व्यवस्थित हो उससे पहले एक और प्रश्न ...
अतः ऐसा लिख गया
ashish tumhare jaise purush samaj me ek asha ki kiran hain ..
लीना जी कोई महंत नहीं हूँ अभी तक जिस पटरी पर हूँ उसका समर्थन करता हूँ...
दी आपके प्रश्नों का उत्तर Arun जी बेहतर दे पायेंगे मैं जो समझ पाया मध्यम वर्गीय मानसिकता के साथ सो लिखता हूँ
satya ki raah me satyawan aur satyawadi hi milte hain Ashish sir...
Ashish bahas ek purush ki nhi purush varg ki mansikta ko lekar thi..
isme kuchh bhi vyaktigat na liya jaaye.. itni apeksha hai
जी आप से सहमत पर पाँचो उंगलिया बराबर नहीं होती आपत्ति इस बात को लेकर थी मैं तो पहले ही लिख चुका था "क्यूँ चारित्रिक कमी बहुधा पुरषों में देखने में आती है ????"
vahi to Ashishji samaj ke jis varga ka aap pratinidhitva kar rahe hain vah tamam visangitiyon se grasit hai
दी !:ठगी प्रेमिका भी गई और पत्नी भी पुरुष ने ग्लानि अनुभव की पर व्यक्त नहीं की
दी !व लीना जी ,संभव नहीं है चर्चा सो विश्राम ...
पत्नी के विहँसने में वह अनुताप छिपा है भैया .. पर कवि की सौम्यता उस पर वक्रोक्ति कर के रह जाती है ..
स्त्री -पुरुष के जीवन में ऐसी स्थितियां पैदा हो सकती हैं . ऐसे में लौट आना विवशता नहीं .. शायद एक बौद्धिक निर्णय है .परिवार के हित में है ये निर्णय . लेकिन इस निर्णय को कितनी स्वीकारोक्ति मिलती है , ये देखने की बात है . स्त्री क्या ये साहस कर सकती है ? ठगा शायद कोई नहीं गया .. न पुरुष ने ठगा , न स्त्री ठगी गई . विवेक से परे की स्थिति भी नहीं कही जा सकती ये . कविता में हिंस्र शब्द ने काफी सोचने को मजबूर किया ... यहाँ आकर विभेद पैदा होता है . कविता में एक माँ , पत्नी और स्त्री {अन्यान्य } आये हैं ... अंत में पत्नी में सभी स्त्रियों का विलय ..??? ये भाव सताता है .. इस पर बहस नहीं होनी चाहिए , लेकिन एक सापेक्ष उत्तर पुरुष वर्ग से आना चाहिए ..
स्त्री -पुरुष के जीवन में ऐसी स्थितियां पैदा हो सकती हैं . ऐसे में लौट आना विवशता नहीं .. शायद एक बौद्धिक निर्णय है .परिवार के हित में है ये निर्णय . लेकिन इस निर्णय को कितनी स्वीकारोक्ति मिलती है , ये देखने की बात है . स्त्री क्या ये साहस कर सकती है ? ठगा शायद कोई नहीं गया .. न पुरुष ने ठगा , न स्त्री ठगी गई . विवेक से परे की स्थिति भी नहीं कही जा सकती ये . कविता में हिंस्र शब्द ने काफी सोचने को मजबूर किया ... यहाँ आकर विभेद पैदा होता है . कविता में एक माँ , पत्नी और स्त्री {अन्यान्य } आये हैं ... अंत में पत्नी में सभी स्त्रियों का विलय ..??? ये भाव सताता है .. इस पर बहस नहीं होनी चाहिए , लेकिन एक सापेक्ष उत्तर पुरुष वर्ग से आना चाहिए ..
वाह.... क्या शानदार बहस है .... एक बात इसमें दिलचस्प हैं स्त्रिओं को इस कविता में जहां प्रेम नज़र आया वही मेरे कुछ पुरुष मित्रों को ..शायद अप्रेम..... इसे कैसे समझा जाए\l
Iski sahi vyakhya to aap hi kar sakte hain
ek sher yaad aa gaya hai ... pata nahi kiska hai but irshaad chahunga... "Kaatil bhi, wajahe Katl bhi, Munsif bhi hain wahi, kya hoga faisla yahi socha tamaam raat, raunak-mata-e-zindgi usne hi loot li, jispar kiya tha maine bharosa tamaam raat.."
Politically correct होने का प्रेत हमारे कुछ मित्रों के कंधे पर हमेशा सवार रहता है. यह कविता इससे परे जाने का जोखिम उठाती है... ऐसा ही हमारा जीवन है ..
Anju Sharma Arunji bahas ka ek paksh aur shashakt paksh ye bhi tha ki vakai apki sweekarotki aur sahas sarahniye hai......ye jokhim hi is kavita ka saar laga hamen.......
wow 100 comments.. make is large....
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है.
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है.
Arun Dev aapke blog par maineisi kavita par tippni ki thi... mili nahi ya pasand nahi? plz confirm karen..... http://www.facebook.com/devarun72
सुन्दर सृजक ji ka comment hai wahaan.. padhne mein aa rah hai..
सुन्दर-सृजक ने कहा…
नर-नारी के आदिम प्रवृतियों को समेटे उनके अंतरंग संबंधों की महीन डोर है,यह कविता, जिसके तंतुओं में एक पुरुष की निश्छल और पवित्र भावनाएँ गूँथी हुई है......प्रेमिकाओं के लिए लिखते-लिखते कवि अब ऊब-सा गया है जिसके कारण पत्नी के प्रति यह ताज़गी को समझा सकता है....हर हाल में एक अनुपम प्रेम कविता!
नर-नारी के आदिम प्रवृतियों को समेटे उनके अंतरंग संबंधों की महीन डोर है,यह कविता, जिसके तंतुओं में एक पुरुष की निश्छल और पवित्र भावनाएँ गूँथी हुई है......प्रेमिकाओं के लिए लिखते-लिखते कवि अब ऊब-सा गया है जिसके कारण पत्नी के प्रति यह ताज़गी को समझा सकता है....हर हाल में एक अनुपम प्रेम कविता!
thank you..aprana mam!
पोस्ट पर देखिए ... दिख जाएगी.. आभार
पढ़ते-पढ़ते अनायास ही कुछ लिखा है...भूल-त्रुटियुक्त...क्ष्मप्राथी......बहुत-2 बधाई!!!!
is kavita par isese achchhi aur kya tippani ho sakti hai .. aapne bahut achchha likha hai aur sahi likha hai...
हो सकता है पहली नज़र में यह कविता Politically correct न लगे.. उत्तर भारत के मध्यवर्गीय जीवन का यह सहज दृश्य है .. दरअसल यह पति के पुरुष - प्रवृतिओं को समझने वाली एक पत्नी पर कविता है ... ख़ास बात इसमें पति की संशयग्रस्त मनोवृति, सुविधावादी दृष्टि और अन्ततः पत्नी की ओर उसका लौटना है, वातावरण को सम रखा गया है...
ye hamare sabhi prshno ka jawab hai .. Leena Malhotra Rao isi baat ko kai trah se samjhane ki koshish karte rahe .. par shabdon ka chayan galat tha isliye itni sundar kavita bahas mein pad gai..
aparna ji bahas kavita par nhi thi.. dhyaan se dekhiye kavita ko to pahli hi nazar me sundartam maan liya gya tha. bahas ka mudda kavita se upje ek prshn se tha ki kya ek stree yadi bhatak kar vaapis lautti hai to use purush andekha karega ? yah ek samajik sarokar ka prshn tha kavita se upja tha kavita par nhi tha.. Aparna Manoj ji. saadar
hata di ..bhai..
Aparna, maine pehle bhi kaha ki kavita ka sashakt paksh meri nazar mein yahi hai ki kis tarah se kavi ne purush man bhi sabhi samverdnao aur vicharo ki bina lag lapet samne rakhne ka sahas kiya hai, ve badhai ke patra hain......kripya ise kavi ke vyakigat jeevan par tippani na samjha jaye....yadi ek kshan ko bhi Arun Dev ji ko aisa laga ho to main bhi kshamaprarthi hoon
Aparna Manoj ab iska uttar kavita nahi uske bahar jaakar purush varg ko dena hoga ..
Arun ko bura nahi laga hai.. ye to ham apne likhe ke liye ..
इस कविता पर आप सबकी इतनी सार्थक बातचीत से अभिभूत हूँ...
कई बार मेरे मन में एक सवाल आता है क्या ..पत्नीव्रता या पतिव्रता जैसी कोई अवधारणा संभव है..क्या जब हम किसी स्त्री से प्रेम करते हैं तब क्या पूरी स्त्रीत्व से प्रेम नहीं कर रहे होते हैं .. और क्या यह बड़ी बात नहीं है ..क्या किसी के जीवन में एक ही स्त्री के लिए जगह होती है ...शायद नहीं.. यह कविता नैतिकता की इस अवधारण पर भी कुछ कहती है ज़ोर ज़ोर स् ए नही .. विहंस कर ही सही.
baat samaaj ke banaye niyamon ke turmoil ki hai ... Arun.. ye niyam aapko ek vrat se baandhte hain .. stritv se prem alag hai aur naari vishesh se prem alag baat hai .. ek se poora prem karte hue aap stritv ko samman de rahe hote hain .. pata nahi kyon naitikta ki awdharna purushon aur striyon ke liye alag-alag dikhai deti hai .. yahi ham jaanana chahte hain..
यह समझदारी तो पुरुषों को भी दिखानी होगी ... कम से से कम अपने संस्कारों से लड़ने की कोई कोशिश तो दिखे ... स्त्री का शरीर तो उसका ही है ... प्रेम पाने और करने का भी उसे अधिकार तो होना चाहिए...
Aparna Manoj par is unmuktata se parivaron par viprit asar padega .. ham apne bachchon ko kaunse naitik mooly dete hain.. tab ye kya aur doharapan nahi hoga ..
जो चीजे स्वाभाविक है, उन्हें स्वीकर करने से हमारा समाज सहज होगा...जटिलता अस्वाभाविक को स्वीकार करने से बढती है...
dekho .. yadi ham gaur karen to sabhi cheezen molecules se bani hain.. inmen ek nucleus hota hai jiske charon traf sahaj roop se electron aur proton ghoomte hain... yadi ye inse bahar nikalne ki koshish karte hain to aisi oorja utpann hoti hai ki usese keval dhwans hota hai .. ye prakriti ka niyam hai... jo stri -purush par bhi barabar lagu hota hai.. free space ka matalb freedom nahi .. liberty hota hai.
Ajay Kumar लाईक !
स्त्रियों को इस कविता में किन किन कारणों से प्रेम दीखता है , इस की गंभीर चर्चा वे ऊपर कर चुकीं हैं. लेकिन अहम् सवाल यह है कि इस कविता को स्त्रीत्व और स्त्री- प्रेम किन बातों में दीखता है .स्त्री के घरेलू जिम्मेदारियों के प्रति समर्पित होने में , बहुत कुछ देखते हुए भी न देखने में ,पति को अपराध बोध से मुक्त रखने में , उसे बाहर भीतर काम /प्रेम खोजने की फुर्सत मुहैया करने में. क्या यह वही आदर्श पत्नी नहीं है , जिस की कामना पुरुष ने पौराणिक काल से की है?क्या कविता इस स्त्रीत्व को प्रेम नहीं मान रही ?क्या कविता इस प्रेम को प्रश्नांकित कर रही है ? या गौरवान्वित कर रही है ?क्या राजनीति सहीपन को चुनौती देने का मतलब संस्कारबद्द पूर्वग्रहों को स्थापित करना होता है ?
ये बेहद गंभीर मुद्दे हैं. उठाये ही इस लिए जा रहे हैं कि अरुण देव हमारे अत्यंत संभावनाशील कवियों में से एक हैं. हम उन की कविता को गंभीरता से लेते हैं, इस लिए उस पर बात करते हैं. हिंदी में आह वाह का माहौल खत्म होना चाहिए . अकुंठ मन से गंभीर आलोचना और संवाद करने की संस्कृति का निर्माण करना भी हमारी ही जिम्मेदारी है.
इमानदारी और साहस बहुत अछ्छी चीजें हैं.लेकिन सब से जरूरी चीज है समझ.महत्वपूर्ण सवाल यह है कि प्रेम की हमारी अवधारणा क्या है . हम परम्परागत अवधारणा को चुनौती दे रहे हैं या मजबूती ? इस कविता में वाचक को किसी दूसरी स्त्री के प्रति आकर्षित हो जाने का अपराध बोध है . उसे यह अपराधबोध नहीं है कि उस के प्रेम में पत्नी को निर्धारित भूमिकाओं से मुक्त करने की इच्छा तक नहीं है.
किसी दूसरे या दूसरी से प्रेम करने में अपराध क्या है ? अपराध बोध की असली वजह यह अहसास है कि ऐसी भली और प्रेम मय पत्नी से असल में उसे कोई प्रेम नहीं है.और यह की उस दूसरी से भी उसे कोई प्रेम नहीं है. अगर कविता इस विन्दु तक आ सकी होती तो क्या बात थी. लेकिन इस के लिए उसे संदेह करना होता दाम्पत्य और प्रेम की समूची प्रचलित अवधारणा पर.लेकिन यहाँ संदेह नहीं और गाढा होता हुआ विश्वास है.
यह सब कहने के बाद भी मैं अपनी ही धारणा के प्रति संदेह की खिड़की खोल कर रखता हूँ.मुझे मेरी भूल गलती समझ में आयी तो उसे सुधार लेने में क्या गुरेज़ होगा ?
ये बेहद गंभीर मुद्दे हैं. उठाये ही इस लिए जा रहे हैं कि अरुण देव हमारे अत्यंत संभावनाशील कवियों में से एक हैं. हम उन की कविता को गंभीरता से लेते हैं, इस लिए उस पर बात करते हैं. हिंदी में आह वाह का माहौल खत्म होना चाहिए . अकुंठ मन से गंभीर आलोचना और संवाद करने की संस्कृति का निर्माण करना भी हमारी ही जिम्मेदारी है.
इमानदारी और साहस बहुत अछ्छी चीजें हैं.लेकिन सब से जरूरी चीज है समझ.महत्वपूर्ण सवाल यह है कि प्रेम की हमारी अवधारणा क्या है . हम परम्परागत अवधारणा को चुनौती दे रहे हैं या मजबूती ? इस कविता में वाचक को किसी दूसरी स्त्री के प्रति आकर्षित हो जाने का अपराध बोध है . उसे यह अपराधबोध नहीं है कि उस के प्रेम में पत्नी को निर्धारित भूमिकाओं से मुक्त करने की इच्छा तक नहीं है.
किसी दूसरे या दूसरी से प्रेम करने में अपराध क्या है ? अपराध बोध की असली वजह यह अहसास है कि ऐसी भली और प्रेम मय पत्नी से असल में उसे कोई प्रेम नहीं है.और यह की उस दूसरी से भी उसे कोई प्रेम नहीं है. अगर कविता इस विन्दु तक आ सकी होती तो क्या बात थी. लेकिन इस के लिए उसे संदेह करना होता दाम्पत्य और प्रेम की समूची प्रचलित अवधारणा पर.लेकिन यहाँ संदेह नहीं और गाढा होता हुआ विश्वास है.
यह सब कहने के बाद भी मैं अपनी ही धारणा के प्रति संदेह की खिड़की खोल कर रखता हूँ.मुझे मेरी भूल गलती समझ में आयी तो उसे सुधार लेने में क्या गुरेज़ होगा ?
अरे , अनुमति क्या जरूरत है ?बहस जहां तक जाए , कविता और हिंदी के लिए गुण ही करेगी.
निश्चय ही कवि को यहाँ एक अपराधबोध है ,लेकिन इससे पत्नी की निर्धारित भूमिकाओ से मुक्ति की क्या बात है ?भारत जैसे देश में जहाँ स्त्रियां अनेक बार पुरुष के ना चाहने के बाद भी अपने लिए भूमिकाएं निर्धारित कर लेती हैं ,इससे कहाँ यह अर्थ आता है कि उनकी सामाजिक और व्यक्तिक भूमिकाएं कोई और निर्धारित कर रहा है ? हर पाठ की अनेक व्याख्याएं होती है और होनी भी चाहियें ,क्यों हम यही मानें कि इस पत्नी से वाचक को प्रेम नहीं है ,यह भी तो संभव है कि जिस प्रेम की कस्तूरी की तलाश में कवि भटकता रहा ,उसे उस प्रेम की वास्तविक प्राप्ति पत्नी से ही मिली हो ,दूसरे सम्बन्ध महज वायवीय हो ,कृत्रिम और बनावटी हो, जैसी आजकल कवितायेँ लिखी जा रही हैं ,और जैसी कविताओ पर आह -वाह जैसी ध्वनियाँ लोग फैला रहे हों .............और एक बात प्रेम की कोई प्रचलित अवधारणा तो कोई है ही नहीं ,हो भी नहीं सकती,, क्योंकि प्रेम किसी परिभाषा और नियम के दायरे में समां ही नहीं सकता वैसे ही जैसे नैतिकता ,हर आदमी के लिए उसके मायने अलग होंगे .महज प्रचलित हो जाने से कोई अवधारणा सही नहीं हो जाती ,लोग इस कविता पर पुरुषवादी लम्पटता का जो भी आरोप लगायें ,मुझे तो यह क्रन्तिकारी कविता लगती है जहाँ पति या प्रेमी विल्कुल निर्दोष और निष्कपट भाव से अपनी दुर्वलता को प्रस्तुत करता है उसे छिपाने की कोई भावना उसमे नही है .कितने लोग है जो आज ऐसी इमानदारी कम से कम प्रेम के बारे में रखते हैं ?कायदे से देखे तो इधेर की अधिकतर प्रेम कवितायेँ निहायत नकली ,और नोस्टालजिक संवेदना को लिए घूम रही है जहाँ अपनी कमियों को स्वीकारने की कोई चेष्टा तो नहीं ही है ,बल्कि अपने को अच्छा और मासूम दिखने की हास्यास्पद निर्लज्जताएं ही दिखती हैं.प्रेम में हर के समीकरण वेदनाएं और अनुभूतियाँ और लगाव अलग होते हैं और देखने का नजरिया भी ,क्यों हम अपनी बनी बनाई प्रचलित अवधारणा को एक ईमानदार स्वीकारोक्ति पर थोप कर अवरुद्ध करे .
Is se sunder bhav bhojpuri aur rajsthani ke giton me aate hain...ek geet ki kuchh panktiyon ka Arth hai... mera bachcha doodh pi raha hai aur mera pati mere stano ke sath khe;lna chahta hai, mai dono ko kaise khush rakkhun,
kuchh is tarah Rajsthani Horee hai. Arun me banavati romanticism hai
aur claasici bhasa ka bevajah sahara liya hai HALKE kism ke CHALATAAU vicharon ko dhankaNE KE LIYE.
kuchh is tarah Rajsthani Horee hai. Arun me banavati romanticism hai
aur claasici bhasa ka bevajah sahara liya hai HALKE kism ke CHALATAAU vicharon ko dhankaNE KE LIYE.
बहस लंबी चली। मुझे जो समझ में आ रहा है वह दो पंक्तियों में बता दूँ। अरुण ने ज़ाहिरा तौर पर यह कविता पत्नी के लिए ही लिखी है। इसका पाठ स्त्रीवादी व्याकरण से उलझ जाएगा। पत्नी की कविता कभी भी स्त्री की कविता कैसे हो सकती है। आज भी भारत की पत्नियों को फेमेनिज्म की बहुत जरूरत है।
उसकी संचित स्मृतियां ही हैं जो उससे न कहो, उससे न चाहो तो भी पुरुषों के पक्ष में जाती पुरानी वैचारिकी और स्थापनाओं को बार-बार धो-पोछ कर चमकाती रहती है। परितोष ने स्त्री की इस बद्धमूल स्थिति को बड़े ढंग से घुमाने की कोशिश की है जिससे लगे कि नहीं, इसके लिए व्यवस्था दोषी नहीं है। स्त्री खुद मूढ़ है। हम उसे व्रत करने से रोकते हैं लेकिन वह नहीं मानती। गाँव में तीज करती है राजधानी में करवा चौथ करती है।
इस कविता को पति-पत्नी के घरबार या किसी सामाजिक संवास के प्रचलित canons के सहारे नहीं समझा जा सकता। अरुण स्त्री अस्मिता को ही रेखांकित करते हैं। बहुतों ने इसीलिए उसे bold, सच्चा, जीवन जैसा ईमानदार, स्वीकारोक्ति वगैरह कहा भी है। है भी। लेकिन पत्नी को अंतिम प्रेम की शरणस्थली आदि के रूप में इस कविता का भाष्य कविता को नए-नए मुद्दों में फँसा देता है। अरुण की ईमानदारी मुझे भी स्वीकार्य है परंतु सिर्फ इसी सादगी पर मरना-मिटना भी ठीक नहीं है। स्त्री पत्नी के रूप में तो निभा ले गई अब उसे प्रेम का अंतिम अरण्य भी मत बनाइए। देह और देवी की वस्तुवाचक संज्ञाओं में स्त्री का संसार अब तक निस्सार रहा है - अरुण इसी उद्घोष के कवि हैं; प्रच्छन्न भी प्रत्यक्ष भी।
बधाई हो मित्रवर !!!
उसकी संचित स्मृतियां ही हैं जो उससे न कहो, उससे न चाहो तो भी पुरुषों के पक्ष में जाती पुरानी वैचारिकी और स्थापनाओं को बार-बार धो-पोछ कर चमकाती रहती है। परितोष ने स्त्री की इस बद्धमूल स्थिति को बड़े ढंग से घुमाने की कोशिश की है जिससे लगे कि नहीं, इसके लिए व्यवस्था दोषी नहीं है। स्त्री खुद मूढ़ है। हम उसे व्रत करने से रोकते हैं लेकिन वह नहीं मानती। गाँव में तीज करती है राजधानी में करवा चौथ करती है।
इस कविता को पति-पत्नी के घरबार या किसी सामाजिक संवास के प्रचलित canons के सहारे नहीं समझा जा सकता। अरुण स्त्री अस्मिता को ही रेखांकित करते हैं। बहुतों ने इसीलिए उसे bold, सच्चा, जीवन जैसा ईमानदार, स्वीकारोक्ति वगैरह कहा भी है। है भी। लेकिन पत्नी को अंतिम प्रेम की शरणस्थली आदि के रूप में इस कविता का भाष्य कविता को नए-नए मुद्दों में फँसा देता है। अरुण की ईमानदारी मुझे भी स्वीकार्य है परंतु सिर्फ इसी सादगी पर मरना-मिटना भी ठीक नहीं है। स्त्री पत्नी के रूप में तो निभा ले गई अब उसे प्रेम का अंतिम अरण्य भी मत बनाइए। देह और देवी की वस्तुवाचक संज्ञाओं में स्त्री का संसार अब तक निस्सार रहा है - अरुण इसी उद्घोष के कवि हैं; प्रच्छन्न भी प्रत्यक्ष भी।
बधाई हो मित्रवर !!!
भाई सुशील जी...यह कविता अब कवि से अलग होकर अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व रखती है.. इस Text के हर reading का स्वागत है .. और सब सापेक्ष रूप से सही है.... l
Aparna Manoj haan .. ye aapse usi pal alag ho gai thi jab ye pathakon ke haath mein pahunchi aapko ek baar phir se badhai .. anmol kavita hai ye ..
इस एकमात्र कविता पर लोगों की अपनी-अपनी एक पूरी पी.एच.डी. ही हो गई....कम कविताओं को इतना बड़ा public domain मिल पाता है .... और सामूहिक विवेक में प्रतिष्ठित होने का गौरव भी....
Sushil Krishna Gore ji .. ek to hamari hi ho gai Ph.d.. par ant mein nishkarsh yahi hai ki patni ka aisa sahaj , sundar chitran .. kamaal hai .... ek purush drishti naari ke bhavnaatmak pahaluon ko jis saumyta se unker rahi hai , utne hi saahas se ek purush apni kamzori ko sweekar bhi kar raha hai ... wah apni suvidabhogi drishti ko ant mein jis trah rakh raha hai wah ekdam alag hai
पत्नी को समर्पित एक प्यारी-सी 'प्रेम कविता' !!
yah kavitaa striyaan samajh aur saraah sakeen . ve purush bhee samajh-saraah sake jinke bheetar thodee-bahut stree hai . aamool-chool parivartankaamee aur stree-uddhaarak nyaaypriy purush ise saraah paayenge aisi ummeed kam hai . par niraash naheen honaa chaahiye ummeed par duniyaa kaayam hai . 'barjori karo na mose Hori mein' ya 'bansiwaale ne gher layi,akeli paniyaa gayi' ki pukaar sun kar kai ati samvedansheel aur nyaaypriy mitra Krishna ke khilaaf FIR ke himaayati hain. gadya se alag kyaa kavitaa ko koi chhoot/concession ya kavi ko koi poetic licence milna chahiye ? ya use hameshaa political correctness se sanchaalit honaa chaahiye ? kavitaa mein achhi-buri/aadhee-adhoori par sachchi anubhooti / aatmsweekaarokti ka bhee to koi mol hotaa hogaa .
एक बोल्ड व इमानदार कविता |स्त्री को समझने का दावा करने वाला पुरुष भी उसके प्रेम को नहीं समझ पाता ,देव जी की कविता से कुछ उम्मीद बंधी है कि पुरुष प्रेम के जनतंत्र की और झुक रहा है .
Arun jee, aapki sabhi kavitaon kee tarah yah kavita bhi taazgi bhari..., mere jaise saadharan vyakti yah kavita isliye achchhi lagi ki yah kavita tamaam purushon ko apni girebaan mein jhakne mein majboor kar rahaa hai..
शाम 7 बजे जब ऑफिस से घर पहुँचा तो पत्नी 104+ डिग्री बुखार में तप रही थीं। तुरंत अपने फेमिली डॉक्टर की हिदायत पर उन्हें पानी की पट्टी लगाना चाहा तो वे कुछ इस तरह सिकुड़ रही थीं मानो मेरा ऐसा करना पुरुषोचित नहीं ठहरता।
उनके इस संकोचीपन में भी क्या इस कविता का कोई पाठ अंतरित नहीं होता? क्या
“यही तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप” है।
इस समय उनका बुखार पहले से कमतर हुआ है – घबराने की बात नहीं है। मैं इस वक्त मुस्तैद हूँ – मुझे बुखार है कि उनका बुखार एकदम उतर जाए।
“तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम”
उनके इस संकोचीपन में भी क्या इस कविता का कोई पाठ अंतरित नहीं होता? क्या
“यही तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप” है।
इस समय उनका बुखार पहले से कमतर हुआ है – घबराने की बात नहीं है। मैं इस वक्त मुस्तैद हूँ – मुझे बुखार है कि उनका बुखार एकदम उतर जाए।
“तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम”
सुशील जी.. ख़ास ख्याल रखिए....
जीवन से कविता की ओर गए ... यह भी एक भाष्य है इस कविता का.
जीवन से कविता की ओर गए ... यह भी एक भाष्य है इस कविता का.
यह विचित्र लगता है जब कला और साहित्य को अस्मितावादी ऐनक से देखते हुए अपने परिकल्पित कैनन को ही सार्वभौमिक मान लिया जाता है. केवल नारे और नाराज़गी से कविता नहीं बनती, मेरा ऐसा मानना है. कविता का हजारों साल का इतिहास है.. अर्नस्ट फिशर की एक बात याद आती कि कला समाज को समझने के लिए जरूरी है, बदलने के लिए भी जरूरी है पर वह इस लिए भी जरूरी ही कि उसमें एक आकर्षण निहित होता है. कविता का कविता होना पहली शर्त है. विचार सापेक्ष हैं. किसी समय नारीवादी आंदोलनों में स्त्री के पुरुष बनने की होड़ थी, तो अब स्त्रीत्व की ताकत को समझने और उसे ही बल मानने पर ज़ोर है... खैर ..स्त्री - पुरुष संदर्भ में मेरी कुछ और कविताएँ भी देखी जानी चाहिए..
Aparna Manoj Arun ki kavitaen bahut sahajta se naari ke man tak pahunchti hain.. ye kavita ekdam kamaal hai .. yatharth se jodti hui chintan tak jaati hai .. samvednaon ka aisa gahan jhutputa bahut kam hi dekhne ko milta hai.. samanjasy banaye rakhti .. sahaj sambandhon mein aastha rakhti kavitaen hain....
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप
तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो
तुम्हारे आंचल से कच्चे दूध की गंध आती है
तुम्हारे भरे स्तनों पर तुम्हारे शिशु के गुलाबी होंठ हैं
अगाध तृप्ति से भर गया है उसका चेहरा
मुझे देखता पाकर आंचल से उसे ढँक लेती हो
और कहती हो नज़र लग जाएगी
शायद तुमने पहचान लिया है मेरी ईर्ष्या को
बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज....
ye panktiyan kavita ke kala paksh aur bhaav paksh ko saamne hi nahi laati varan har stri chahen wah working ho ya house wife ... chahen wah sajag ho ya wah beparwaah ... par naari ke man ko bolti hain.. abhi bhi ham yahi kahenge .. ki ek BOLD KAVITA .. naarebazi se pare .. bahut sahaj ..
और कमाल की जैसे खिली हो धूप
तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो
तुम्हारे आंचल से कच्चे दूध की गंध आती है
तुम्हारे भरे स्तनों पर तुम्हारे शिशु के गुलाबी होंठ हैं
अगाध तृप्ति से भर गया है उसका चेहरा
मुझे देखता पाकर आंचल से उसे ढँक लेती हो
और कहती हो नज़र लग जाएगी
शायद तुमने पहचान लिया है मेरी ईर्ष्या को
बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज....
ye panktiyan kavita ke kala paksh aur bhaav paksh ko saamne hi nahi laati varan har stri chahen wah working ho ya house wife ... chahen wah sajag ho ya wah beparwaah ... par naari ke man ko bolti hain.. abhi bhi ham yahi kahenge .. ki ek BOLD KAVITA .. naarebazi se pare .. bahut sahaj ..
एक कविता पर शायद ही इतनी चर्चा कभी हुयी हो , आप को बधाई अरुण.बहस के दोनों पक्षों ने अपनी बात विस्तार और स्पष्टता के साथ रख दी है .यह एक महत्वपूर्ण घटना है हिंदी कविता की
इस काव्य उत्सव में भाग लेने वाले सभी मित्रों का आभार, इसे पसंद करने वाले मित्रों का भी .. Ashutosh Kumar ji, Aparna Manoj, Leena Malhotra Rao , Anju Sharma, Suman Keshari Agrawal, Paritosh Mani. Sushil Krishna Gore, Himanshu pandeya, Priyankar Paliwal je, Ranjana Jaiswal, pradeep saini, Puspendr phalgun, Vandana Shukla.Anurag Atoria.Shyam Bihari Shyamal.Arun Prakash Mishra.Ashish Pandey.Manoj Patel.Aparna Manoj.Pratyaksha Sinha.Nutan Gairola.सुशीला पुरी.Preety Choudhari.Amar Nath Ojha.Kailash Wankhede.Gaurav Mishra.Nisha Pravaah.Manisha Jain.Sheshnath Pandey.Sayeed Ayub. Navneet Bedar Reena Dubey Rakesh Narayan Dwivedi Suman Keshari Agrawal Manisha Kulshreshtha Anju Sharma Priyankar Paliwal Sushil Krishna Gore Tripurari Kumar Sharma Pradeep Saini Ashok Kumar Pandey विमलेश त्रिपाठी सुन्दर सृजक पुष्पेन्द्र फाल्गुन Ashish Pandey Satyanand Nirupam Kamal Soni.... आभार.
Pradeep Saini
arun ji sabka dhanyvaad kar diya hai......to laga ab kuch aur kahna nahin chahiye....lekin kah raha hun.....apne shuraati comment mein maine jis pankti ko quote kiya tha......vah....“तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम”....thi....is pankti mein shaayd kavita ki key maujood hai....kavi shuruaat mein hi stereotype prem se kavita mein maujood paridrishay ko alag bata deta hai....yahan sahcharay/dampatay se utpan prem hai......kya ye galat hai....abhi office bula raha hai.......main apni baat aakar puri karunga.........
Pradeep Saini
kavita par bahut sari tippaniyan hue hain.....lambi bahas hue....kisi ko lagta hai ki purush ke liye pyar ko dekhne ka dristikon naari se alag hai....phir bahas ne kuch aisi disha pakdi ki vah naari-purush mein bant gayi......ek sawaal ye bhi utha ki kya purush naari ke bhatkaav ko muaf/savikaar kar sakta hai ya nahin.......sawal rochak tha aur jawaab us se bh ijyada........kisi ne kaha ki metros mein purush streeyon ke aise kisi act ko savikar/muaf kar bhi sakte hain.......lekin bahar shayad aisa na ho.........mera mat hai ki hamare samaj mein stree purush sambandhon mein sabse mahatavpurn factor stree ki survival ke liye purush par dependence bhi hai......vah uske liye bread earner hai......use ek chat muhaiya karata hai......aur aurat aarthik taur se us par nirbhar hai......yah stithi naari se uske chun ne ka adhikaar cheen leti hai.....phir vah naari metro mein rahti ho ya door-daraj ke kisi gaon mein.......jab tak stree apne liye roti aur chat ka intjaam nahin kar sakti....tab tak uski sthiti purush se bheen hai aur rahegi......main ek baat aur jodna chahunga ki.....kaee baar stree aarthik taur par independent hote hue bhi purntay swantatr nahin ho pati....iske peeche bhi kaee samajik aur paravarik dawab rahte hain.....vakalat mein main kaee couples se mila hun.....unke matrimonial disputes/cases mein......maine paya ki streeyan bewafai karne mein purush se bahut jyada peeche nahin hain.....aur main aise purushon se bhi mila hun jo aise baton ke pramaan hone ke baad bhi use dooosra muaka dene ko taiyar ho jaaate hain....chaahe uske mool mein apne kiye ka pashchataap hi kyun na ho.....doosri baat jo main kahna chahunga woh ye ki is tarah ki bhranti nahin falai jani chahiye ki streeyan tyag ki murtiyan aur prem ki upaasak hain.....aur purush unka shoshak.....agar saari be-wafai purush kar rahe hain to yakinan ve aisa kisi doosri stree ke sath sambandh bana kar hi kar rahe honge....sawal udhta hai ki wah doosri stree kya kar rahi hai......aap use bhi victim bata kar palla nahin jhaad sakte .............aur kisi bhi insaan ki sachchai/moral values permanent nahin hoti.....chahe woh stree ho ya purush[ mujhe ye division karte hue achcha nahin lag raha hai] ...zindagi humme roz naye naye pralobhan deti hai....humme roz khud ko sambhalna shahejna hota hai........prem mein hone par bhi par stree ya par purush ki taraf aakarshan ho sakta hai.....lekin prem humme correct karta hai.....wah aapko khud ko samajhne ka mauka deta hai.....jab aap prem karte hain to apne bhitar cheepi vaasna ko jyada behtar tareeke se samajh sakte hain.....aur us se paar pa lete hain.....with due apology for such a long comment....
http://alka-singh.blogspot.com/2011/11/blog-post_3924.html
अरुण देव की कविता ‘‘पत्नी के लिए'' पर एक हिमाकत ---- डॉ अलका सिंह
सच कहूँ तो इस कविता क़ा चुनाव मैंने अपने किसी अन्य आलेख के लिए किया था जिसमें कई कवियों की रचनाएँ शामिल थीं किन्तु जब भी इस कविता को उस आलेख के मद्देनज़र उठाती और उसमे शुमार करने की सोचती तो एकबारगी ठहर जाती और लगता के ये कविता किसी और बात की मांग करती है और विचार आता कि इस कविता पर अकेले ही विस्तार से लिखना चाहिए. इसका एक कारण भी था. मैंने अपने पाठकीय जीवन में जितनी भी रचनाएँ '' पत्नी के लिए'' पढी हैं वह आपसी संबंधों के चित्रण, विस्तार और अपनी बेबाक स्वीकृति से अलग ज्यादातर ' घरारी' वाले अंदाज की, या फिर भावों से ओत प्रोत सुन्दर शब्दों के मायाजाल में लिपटी, किसी क्षण पर केन्द्रित रचनाएँ पढी थीं. या फिर विरह के क्षण की पीडा का चित्रण ही जाना था. मेरी आँखों के सामने से यह पहली रचना गुजर रही थी जो कई सन्दर्भ एक साथ लेकर खडी थी. अरुण देव की सीधी साधी दिखने वाली ये कविता अपने अर्थों में उतनी सीधी नहीं थी जितनी की दिखती है. इसलिये यह मेरे लिये एक बहुमुल्य रचना थी.
अरुण देव से मेरा परिचय फेस बुक पर ही हुआ हालाँकि हमारे बीच संवाद शायद ही कभी हुआ हो और यह बात मेरे लिए दुःख व्यक्त करने वाली ही है किन्तु अरुण देव की रचनाओं से मेरा परिचय बहुत पुराना है. जहाँ तक अरुण देव की इस रचना क़ा प्रश्न है तो ये रचना मैंने तब पढी जब एक् कविता पर फेस बुक पर चर्चा बहुत गर्म थी. और वह कविता इसी कविता ‘‘पत्नी के लिए'' से प्रेरित थी. उसी दौरान मांगने पर अरुण ने मुझे लिंक भेजा था ताकि मैं इस रचना को पढ़ सकूं . मेरी उत्सुकता के कई कारण थे ;
१. सबसे पहली जिज्ञासा थी के आखिर उस कविता में क्या ऐसा है जो किसी को एक कविता लिखने को प्रेरित करता है ?
२. ''पत्नी के लिए'' में आखिर अरुण किन संवेदनाओं से गुजरे हैं? क्या संवेदनाएं विशाद के क्षणों की हैं ?
३. स्त्री विषयक, विशेष कर पत्नी विषयक इस रचना में अरुण देव के प्रयोग क्या हैं ? क्या यह महज़ व्यक्तिगत भाव तक सीमित है या फिर बड़े सरोकार से जुडी है ?
४. मैं आज के समय में पति-पत्नि के बीच सम्बन्धों में हो रहे बदलाव के चिन्ह की तलाश भी कर रही थी.
यही वज़हें थी कि मैंने इस कविता की एक - एक लाइन और एक - एक प्रयोग को बहुत बारीकी से पढ़ना आरम्भ किया और आज इस कविता पर लिखने की सोच बैठी.
अरुण की कविता पहली बार पढ्ने पर यह दो व्यक्तियों के अन्तरंग क्षणों की बहुत अन्तरंग अनुभूति सी लगती है किन्तु जैसे ही आप इस कविता को बडे स्तर पर रखकर सामजिक सरोकर से जोड्ते हैं कविता अपने व्यापक अर्थ लेकर आपके सामने खडी हो जाती है. दरअसल अरुण जब इसे कविता के माध्यम से एक वक्तव्य के रूप में सबके सामने रखते हैं और लोंगों को समर्पित करते हैं तो यह कविता, इसके मायने और सरोकार सभी बहुत व्यापक हो ही जाते हैं क्योंकि यही कविता के मायने हैं. यही वज़ह है कि इस कविता पर बात करने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि २०११ में लिखी इस कविता को मैं इसी सदी की कविता के रूप मे ही समझने की कोशिश कर रही हूँ और मुझे लगता है यही इस कविता के साथ करना भी चाहिये.. ऐसा इसलिये भी क्योंकि २० वीं सदी को स्त्री के सम्बन्ध में बदलावों की सदी के रूप में जाना गया है. परिवारों की शक्ल, पति- पत्नि के एक दूसरे को समझने के तरीके और बहुत हद तक भावों को अभिव्यक्त करने के तरीके भी बदले हैं. २० वें सदी के उत्तरार्ध और २१ वीं सदी क़ा ये आरंभ इस दृष्टी से बेहद महत्च्वा पूर्ण काल है. इस दौर में कई मायनों में स्त्री पुरुष संबंधों विशेषकर पति पत्नी संबंधों को नए अर्थों में परिभाषित करने के प्रयास भी हुए हैं और उसके के मानक भी बदले हैं. इक बात यहाँ स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है यही दौर है जब प्रभावी रूप से अंतर्राष्ट्रीय राजनितिक मंचों से औरतों की स्थिति पर गहन चरचा हुई है और यू.एन. के हस्तक्शेप ने दुनिया के सभी देशों को इस दिशा में काम करने को मजबूर किया है. यह एक तर्क हो सकता है कि आखिर सरकारें दो व्यक्तियों के बीच के सम्बन्ध को कैसे परिभाषित कर सकती हैं? यह सही भी है किंतु जब एक सोच सीधी रेखा में चलकर एक देश एक क्शेत्र और में जीने वाले लोगों को प्रभावित करे तो उस भाव को रेखांकित करने की अवश्यकता पड्ती ही है.
ऐसे में अरुण की कविता में मैं उस गंध को खोजने की कोशिश करना चाहती हूँ और करुँगी के क्या यह कविता भारत में २१ वी सदी के पति पत्नी की तस्वीर पेश करती है? या फिर यह हमारे घरों के इक आम तस्वीर को ही सबके सामने रखने क़ा प्रयास है? या फिर भारत में पति अब भी उसी मुकाम पर खडा है जहां से औरतों की पीडा का प्रारम्भ होता है और वह जीवन में कई सम्झौते करती है?और भी बहुत कुछ. इन सभी बिन्दुओं को समझने के लिए जरूरी है अरुण की पूरी कविता से इक साक्षात्कार हो. प्रस्तुत है अरुण की पूरी कविता -
वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप
तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो
तुम्हारे आंचल से कच्चे दूध की गंध आती है
तुम्हारे भरे स्तनों पर तुम्हारे शिशु के गुलाबी होंठ हैं
अगाध तृप्ति से भर गया है उसका चेहरा
मुझे देखता पाकर आंचल से उसे ढँक लेती हो
और कहती हो नज़र लग जाएगी
शायद तुमने पहचान लिया है मेरी ईर्ष्या को
बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में
लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती है वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ
तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा
................................... अरुण देव
अब बात कविता पर -
सबसे पहले मैं अरुण को इस बात के लिये धन्यवाद दूंगी कि उन्होनें इस भाव की कविता लिखी और उसे सबके सामने रखा. यह धन्यवाद इसलिये भी जरूरी है इस कविता के माध्यम से पुरुष मन के भाव और स्वीकरोक्तियों से एक ऐसा शब्द चित्र खींचा गया है जो परिवार में महिलओं की स्थिति और उसकी पीडा के करणों को अनयास ही सामने लाता है. कई अवसरों पर औरतों की चुप्पी, कई बातों को नज़रन्दाज़ करना, घर को एक जिम्मेदरी के साथ निभाना, बहुत कुछ जंते हुए उसे अन्देखा करना, कई बातों को हंस कर टाल देना सब महिलाओं के खाते की चीज़ है जो कविता पूरे स्वरूप में बयान करती है. यह कविता यह भी बयान करती चलती है कि पुरुष कैसे पुरुष एक तरफ खडा स्त्री और उसके प्यार की परिभाषा गढ्ता है जहां से वह बहुत चतुराई से अपने को अलग करता चलता है.
यहां मैं इमानदारी से बताती चलूँ कि इस कविता को मैंने ५० से अधिक बार पढ़ा होगा और जितनी बार मैं पढ़ती मेरे सामने मेरे १७ सालों के काम के दौरान मिली हर उस औरत क़ा चेहरा सामने आता जाता जो अपनी परेशानिया लेकर मेरे पास आती रही थीं. अपने पतियों के व्यव्हार उनके सोचने के अन्दाज़ और काम के बोझ का जो वक्तव्य उंक्के मुह से सुना था वो अनयास ही इसे पढ्कर जैसे कानों में गुंजने लगे. इस तरह कविता से गुजरते हुए एकबारगी महत्वपूर्ण रूप से यह सच् मेरे सामने उभरकर आ रहा था के उन सभी महिलाओं मे से ८० प्रतिशत महिलाओं की शिकायतें क्यों थी? इसके कारण क्या थे ? . इसीलिये इस कविता को मैं बडे सामाजिक सन्दर्भ की कविता मानती हूँ. अब बात अरुण की कविता की-
सामन्य रूप से यह कविता एक खुशहाल मध्यम्वर्गीय परिवार के पति पत्नि का चित्रन करती है जहां स्त्री अपने परम्परागत चरित्र के साथ है. इसीलिये अरुण देव की यह कविता स्त्री की स्थितियों के सन्दर्भ को दर्शाते हुए एक व्यापक अर्थ लिये हुए है. पूरी कविता से गुजरते हुए ऐसा लगता है जैसे एक परिवार में किसी पति ने अपनी पत्नि को यह बता दिया है कि -
वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता
इस कविता की इन तीन लाइनों को सामन्य से अधिक द्रिश्ती से देखने की आव्श्यकता है. सरसरी तौर पर यह एक् सकारत्मक भाव उत्पन्न करती हुई सी लगती है. किंतु इसे अगर व्यपक स्तर पर स्त्री जीवन के सरोकारों से जोड कर देखा जाते तो यह् स्थिति समान्य नहीं है बल्कि इसके उलट यह स्त्री जीवन की जतिलताओं के अरम्भ के दर्शन हैं. और यही वज़ह है कि यह बडे पैमाने पर दिखने वाले स्त्री जीवन के दंश के अरम्भ को भी परिभाषित करते हुए आरम्भ होती है. महिलाओं पर किये गये कई सर्वे इस बात का खुलास करते हैं कि . गृहस्त जीवन के एक दौर तक आते - आते 80 प्रतिशत से भी अधिक विवाहित महिलाओं को अपने वैवाहिक जीवन के किसी ना किसी मोड पर किसी ना किसी मोड रूप में यह शब्द सुनना ही पडता है कि ‘’अब वह आंच और आवेग तुममें नही बचा’’. परिवार और उसके पूरे माया जाल में उलझी महिलाओं के जीवन का यह पहला बडा भवनात्मक और मानसिक आघात होता है जिससे वह गुजरती है. पर सवाल है आवेग क्यों खत्म हुआ? किसकी तरफ से खत्म हुआ? खत्म होने क कारन क्या है ? इसके बाद की कविता इन सभी प्रशनो का अपने तरह से जवाब भी है. आप देखें कितने विल्क़्शण रूप से कविता की अगली पंक़्तियां तुम और तुम्हारे पर आकर टिक जाती है और कहतीं हैं _
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप
अब सोचने वाली बात है के आचानक हमारे आवेग की बात करते -करते ये ‘’हमारा’’ सिर्फ ‘’तुम्हारा’’ पर क्यो सिमट् गया? क्या इसलिये कि अब वह आवेग नहीं बचा? या इसलिये कि आवेग के खत्म होते ही पति पत्नि के बीच के सम्बन्ध हम से उतरकर तुम पर आके टिक जाते हैं और पति प्रेम की अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त कहीं और प्रेम तलाशते हुए बस उसके प्रेम की बात कर उसे उलझाता है?
इमानदरी से कहूँ तो पति का यह कहना कि ‘’तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा............ बरसता है.............. और खिली धूप सा’’ पत्नी को लगायी जा रही एक तरह की मस्केबाजी लगती है. शायद उपर की तीन पंतियान कहने के एवज़ में यह एक तरह की भरपायी हो ताकि समजिक और आपसी तौर पर वैवाहिक जीवन की सामाजिक गरिमा और अर्थ बना रहे और साथ में स्त्री के सामने प्रेम के भ्रम की स्थिति भी बनी रहे. क्योंकि अक्सर स्त्रियां शब्दों के इस मायाजाल को तब तक नहीं सम्झ पातीं या समझ्ना नहीं चहतीं जब तक तलवार सर पर ना लटक जाये. बहरहाल गम्भीरता से कहूँ तो यह स्त्री जीवन की सबसे बडी जटिलता है जहां पारस्परिक सम्बन्ध से एक पयदान नीचे उतर कर एक पति अपने भाव न केवल जीता है बल्कि उस अनुभूति से गुजरते हुए पत्नि पर यह प्रभाव छोड्ने की कोशिश करता हैं कि उसके समग्र् विचरों में सिर्फ ‘वह’ ही अवस्थित है ‘उसका’ ही नाम और प्रेम बचा है इसलिये कहता है ‘’तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा, बरसता है और कमाल, खिली धूप सा’’ देखा जाये तो. यह एक पुरुष की स्वीकारोक्ति से अधिक अनुभूति की स्थिति हो सकती है किंतु ध्यान देने वाली बात है कि अब दोनों के आपसी प्रेम में सिर्फ औरत है पुरुष ने इससे अपने को अलग कर लिया है और तुम्हारे पर आकर ठहर गया है. इस सच को इस कविता की अगली पंक्तियां विस्तार देती हैं और कहती हैं -
तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो
‘’तुम्हारा घर’’, ‘’दुनियावी जिम्मेदारी’’ ‘’कनस्तर’’ और ‘’बिटिया'' रेपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो क़ा प्रयोग निश्चय ही बहुत चकित कर देने वाला है. यह इसलिये क्योकि जो घर हमरा होना चहिये था वह अब ‘’तुम्हारा’’ हो गया. यह स्थिति न केवल दुखद है बल्कि एक औरत के लिये जहां अकेले की जिम्मेदारियों को वहन करते हुए बोझ सा भी है. साथ ही उसकी अनकही पीडा भी है. महिलओं के लिये बहुत कठिन ये भी है के हमेशा ही उन्हें ग्रिहस्ती की जिम्मेदारियों के नाम पर सारे बोझ को ढोने की शिक्षा और सलाह के साथ चुप करा दिया जाता है. यही वज़ह है कि वह इसी में खुशी तलाशने को कई बार विवश भी होती रही हैं और महिलयें आज भी होती हैं. क्या वास्तव में घर की ऐसी शक्ल सही है ? क्या स्त्री पर ये जिम्मेदरियां इसलिये हैं कि वो परिवार में आर्थिक सहयोग नहीं करती? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो आज भी भी ज्यों के त्यों खडे हैं और् जवाब में या तो एक बडी चुप्पी है या फिर परम्परा और औरत की जिम्मेदारी का कुछ परम्परागत पहाडा. और ऐसे जवाब सच कहा जाये तो संतुष्ट् तो कतई नहीं करते. इस कविता की सबसे महत्वपूर्ण पंक्तियां जो एक सम्बन्ध की अगली स्थिति को विस्तार देते हुए पति की स्वीकरोक्ति और औरत के चरित्र को भी परिभाषित करते हुए बहुत कुछ कहती हैं.
बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
हो सकता है लोग या बहुत से पाठ्क इसे स्त्री की महनता के रूप में देखें कि वह बहुत कुछ देखते हुए नहीं देखती किंतु वास्तव में यदि देखा जाये तो यह स्थिति सोचने वाला विषय है कि अखिर बहुत कुछ देखते हुए वह क्यों नही देखती वह्? क्या उसमें लडने का साह्स नहीं? य फिर वह डरती है ? डरती है तो किससे? पति के हिंसक हो जाने से ? या समाज में उपहास से? या फिर आपसी सम्बन्धों के विकट हो ज़ाने की कल्पना से? यदि गम्भीरता से देखा जाये तो यह स्त्री की एक दयनीय स्थिति की तरफ इशारा करता है. उसकी यह दयनियता हर स्तर पर दिखती है. चाहे वो सामाजिक स्तर पर हो, व्यक्तिगत् स्तर पर हो या फिर किसी भी मोर्चे पर किंतु सबसे बडी दयनीयता आर्थिक स्तर की है. इसीलिये स्त्री चुप रहती है और नही देखती य कहें नही देखना चाहती.
पुरुष अपने व्यव्हार और उसके सच को जानता है और यह भी जानता है के उसके अनदेखा करने और सम्बन्धों की थाती सहेज के रखने से ही यह सब जो दिख रहा है सब सहज़ है. बहुत रूक कर सोचने वाला वक्तव्य जो इस कविता का है वो है कि ‘’ तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम’’. आखिर ऐसा क्यों है कि ‘उसका’ इन्हें प्रेम करने के लायक बनाता है? क्या यह प्रेम करने की विवशता है ? या फिर यह अपनी गलती के अह्सास की स्वीकरोक्ति? वैसे ये कुछ भी हो गलती की स्वीकरोक्ति जैसा नही है क्योंकि अगर ऐसा होता तो यह कतई नही होता कि -
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में
लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती ही वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ
तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा
मुझे लगता है अब उपरोक्त पंक्तियों को परिभषित करने की अव्यशकता नहीं है. ना ही कुछ कहने की बस इतना कि कुलमिलाकर कहा जाये तो समय के साथ हम 21वीं सदी में जरूर पहुंच गये हैं किंतु समाजिक और अर्थिक रूप से स्त्री के जीवन में, स्त्री पुरुश सम्बन्धों और उसके दयित्वों में बहुत परिवर्तन नही आया है. पुरुष परिवार में घुसकर जीने की जगह दूर खडा हो अपनी विशेष् स्थिति में जीने का आदी है जिससे निकलना या तो वो चहता नहीं या फिर ना निकल पाऊँ इसकी परिस्थितियां उत्त्पन्न करता रहता है तकि स्त्री डर कर वहीं रहे जहां उसके पैरों में हज़ार जंजीरें बन्धी रहे. और वह धर्मपत्नी बनी रहे.
यह कविता पूरे तौर पर 21वीं सदी में भरतीय समाज , उसमें औरत और उसकी स्थिति को चित्रित करती है साथ ही यह व्यपक रूप से एक परिवार, उसमें स्त्री की स्थिति , पुरुष् की परिवार के प्रति सोच, उसका चरित्र सब कुछ परिभाषित करने में सफल रही है यही वज़ह है कि यह कविता जब भी 21वीं सदी के पति के चरित्र को परिभाषित किया जयेगा लोगोन द्वारा जरूर पढी जयेगी.
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अरुण देव से मेरा परिचय फेस बुक पर ही हुआ हालाँकि हमारे बीच संवाद शायद ही कभी हुआ हो और यह बात मेरे लिए दुःख व्यक्त करने वाली ही है किन्तु अरुण देव की रचनाओं से मेरा परिचय बहुत पुराना है. जहाँ तक अरुण देव की इस रचना क़ा प्रश्न है तो ये रचना मैंने तब पढी जब एक् कविता पर फेस बुक पर चर्चा बहुत गर्म थी. और वह कविता इसी कविता ‘‘पत्नी के लिए'' से प्रेरित थी. उसी दौरान मांगने पर अरुण ने मुझे लिंक भेजा था ताकि मैं इस रचना को पढ़ सकूं . मेरी उत्सुकता के कई कारण थे ;
१. सबसे पहली जिज्ञासा थी के आखिर उस कविता में क्या ऐसा है जो किसी को एक कविता लिखने को प्रेरित करता है ?
२. ''पत्नी के लिए'' में आखिर अरुण किन संवेदनाओं से गुजरे हैं? क्या संवेदनाएं विशाद के क्षणों की हैं ?
३. स्त्री विषयक, विशेष कर पत्नी विषयक इस रचना में अरुण देव के प्रयोग क्या हैं ? क्या यह महज़ व्यक्तिगत भाव तक सीमित है या फिर बड़े सरोकार से जुडी है ?
४. मैं आज के समय में पति-पत्नि के बीच सम्बन्धों में हो रहे बदलाव के चिन्ह की तलाश भी कर रही थी.
यही वज़हें थी कि मैंने इस कविता की एक - एक लाइन और एक - एक प्रयोग को बहुत बारीकी से पढ़ना आरम्भ किया और आज इस कविता पर लिखने की सोच बैठी.
अरुण की कविता पहली बार पढ्ने पर यह दो व्यक्तियों के अन्तरंग क्षणों की बहुत अन्तरंग अनुभूति सी लगती है किन्तु जैसे ही आप इस कविता को बडे स्तर पर रखकर सामजिक सरोकर से जोड्ते हैं कविता अपने व्यापक अर्थ लेकर आपके सामने खडी हो जाती है. दरअसल अरुण जब इसे कविता के माध्यम से एक वक्तव्य के रूप में सबके सामने रखते हैं और लोंगों को समर्पित करते हैं तो यह कविता, इसके मायने और सरोकार सभी बहुत व्यापक हो ही जाते हैं क्योंकि यही कविता के मायने हैं. यही वज़ह है कि इस कविता पर बात करने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि २०११ में लिखी इस कविता को मैं इसी सदी की कविता के रूप मे ही समझने की कोशिश कर रही हूँ और मुझे लगता है यही इस कविता के साथ करना भी चाहिये.. ऐसा इसलिये भी क्योंकि २० वीं सदी को स्त्री के सम्बन्ध में बदलावों की सदी के रूप में जाना गया है. परिवारों की शक्ल, पति- पत्नि के एक दूसरे को समझने के तरीके और बहुत हद तक भावों को अभिव्यक्त करने के तरीके भी बदले हैं. २० वें सदी के उत्तरार्ध और २१ वीं सदी क़ा ये आरंभ इस दृष्टी से बेहद महत्च्वा पूर्ण काल है. इस दौर में कई मायनों में स्त्री पुरुष संबंधों विशेषकर पति पत्नी संबंधों को नए अर्थों में परिभाषित करने के प्रयास भी हुए हैं और उसके के मानक भी बदले हैं. इक बात यहाँ स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है यही दौर है जब प्रभावी रूप से अंतर्राष्ट्रीय राजनितिक मंचों से औरतों की स्थिति पर गहन चरचा हुई है और यू.एन. के हस्तक्शेप ने दुनिया के सभी देशों को इस दिशा में काम करने को मजबूर किया है. यह एक तर्क हो सकता है कि आखिर सरकारें दो व्यक्तियों के बीच के सम्बन्ध को कैसे परिभाषित कर सकती हैं? यह सही भी है किंतु जब एक सोच सीधी रेखा में चलकर एक देश एक क्शेत्र और में जीने वाले लोगों को प्रभावित करे तो उस भाव को रेखांकित करने की अवश्यकता पड्ती ही है.
ऐसे में अरुण की कविता में मैं उस गंध को खोजने की कोशिश करना चाहती हूँ और करुँगी के क्या यह कविता भारत में २१ वी सदी के पति पत्नी की तस्वीर पेश करती है? या फिर यह हमारे घरों के इक आम तस्वीर को ही सबके सामने रखने क़ा प्रयास है? या फिर भारत में पति अब भी उसी मुकाम पर खडा है जहां से औरतों की पीडा का प्रारम्भ होता है और वह जीवन में कई सम्झौते करती है?और भी बहुत कुछ. इन सभी बिन्दुओं को समझने के लिए जरूरी है अरुण की पूरी कविता से इक साक्षात्कार हो. प्रस्तुत है अरुण की पूरी कविता -
वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप
तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो
तुम्हारे आंचल से कच्चे दूध की गंध आती है
तुम्हारे भरे स्तनों पर तुम्हारे शिशु के गुलाबी होंठ हैं
अगाध तृप्ति से भर गया है उसका चेहरा
मुझे देखता पाकर आंचल से उसे ढँक लेती हो
और कहती हो नज़र लग जाएगी
शायद तुमने पहचान लिया है मेरी ईर्ष्या को
बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में
लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती है वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ
तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा
................................... अरुण देव
अब बात कविता पर -
सबसे पहले मैं अरुण को इस बात के लिये धन्यवाद दूंगी कि उन्होनें इस भाव की कविता लिखी और उसे सबके सामने रखा. यह धन्यवाद इसलिये भी जरूरी है इस कविता के माध्यम से पुरुष मन के भाव और स्वीकरोक्तियों से एक ऐसा शब्द चित्र खींचा गया है जो परिवार में महिलओं की स्थिति और उसकी पीडा के करणों को अनयास ही सामने लाता है. कई अवसरों पर औरतों की चुप्पी, कई बातों को नज़रन्दाज़ करना, घर को एक जिम्मेदरी के साथ निभाना, बहुत कुछ जंते हुए उसे अन्देखा करना, कई बातों को हंस कर टाल देना सब महिलाओं के खाते की चीज़ है जो कविता पूरे स्वरूप में बयान करती है. यह कविता यह भी बयान करती चलती है कि पुरुष कैसे पुरुष एक तरफ खडा स्त्री और उसके प्यार की परिभाषा गढ्ता है जहां से वह बहुत चतुराई से अपने को अलग करता चलता है.
यहां मैं इमानदारी से बताती चलूँ कि इस कविता को मैंने ५० से अधिक बार पढ़ा होगा और जितनी बार मैं पढ़ती मेरे सामने मेरे १७ सालों के काम के दौरान मिली हर उस औरत क़ा चेहरा सामने आता जाता जो अपनी परेशानिया लेकर मेरे पास आती रही थीं. अपने पतियों के व्यव्हार उनके सोचने के अन्दाज़ और काम के बोझ का जो वक्तव्य उंक्के मुह से सुना था वो अनयास ही इसे पढ्कर जैसे कानों में गुंजने लगे. इस तरह कविता से गुजरते हुए एकबारगी महत्वपूर्ण रूप से यह सच् मेरे सामने उभरकर आ रहा था के उन सभी महिलाओं मे से ८० प्रतिशत महिलाओं की शिकायतें क्यों थी? इसके कारण क्या थे ? . इसीलिये इस कविता को मैं बडे सामाजिक सन्दर्भ की कविता मानती हूँ. अब बात अरुण की कविता की-
सामन्य रूप से यह कविता एक खुशहाल मध्यम्वर्गीय परिवार के पति पत्नि का चित्रन करती है जहां स्त्री अपने परम्परागत चरित्र के साथ है. इसीलिये अरुण देव की यह कविता स्त्री की स्थितियों के सन्दर्भ को दर्शाते हुए एक व्यापक अर्थ लिये हुए है. पूरी कविता से गुजरते हुए ऐसा लगता है जैसे एक परिवार में किसी पति ने अपनी पत्नि को यह बता दिया है कि -
वह आंच नहीं हमारे बीच
जो झुलसा देती है
वह आवेग भी नही जो कुछ और नहीं देखता
इस कविता की इन तीन लाइनों को सामन्य से अधिक द्रिश्ती से देखने की आव्श्यकता है. सरसरी तौर पर यह एक् सकारत्मक भाव उत्पन्न करती हुई सी लगती है. किंतु इसे अगर व्यपक स्तर पर स्त्री जीवन के सरोकारों से जोड कर देखा जाते तो यह् स्थिति समान्य नहीं है बल्कि इसके उलट यह स्त्री जीवन की जतिलताओं के अरम्भ के दर्शन हैं. और यही वज़ह है कि यह बडे पैमाने पर दिखने वाले स्त्री जीवन के दंश के अरम्भ को भी परिभाषित करते हुए आरम्भ होती है. महिलाओं पर किये गये कई सर्वे इस बात का खुलास करते हैं कि . गृहस्त जीवन के एक दौर तक आते - आते 80 प्रतिशत से भी अधिक विवाहित महिलाओं को अपने वैवाहिक जीवन के किसी ना किसी मोड पर किसी ना किसी मोड रूप में यह शब्द सुनना ही पडता है कि ‘’अब वह आंच और आवेग तुममें नही बचा’’. परिवार और उसके पूरे माया जाल में उलझी महिलाओं के जीवन का यह पहला बडा भवनात्मक और मानसिक आघात होता है जिससे वह गुजरती है. पर सवाल है आवेग क्यों खत्म हुआ? किसकी तरफ से खत्म हुआ? खत्म होने क कारन क्या है ? इसके बाद की कविता इन सभी प्रशनो का अपने तरह से जवाब भी है. आप देखें कितने विल्क़्शण रूप से कविता की अगली पंक़्तियां तुम और तुम्हारे पर आकर टिक जाती है और कहतीं हैं _
तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा
तुम्हारा प्रेम बरसता है
और कमाल की जैसे खिली हो धूप
अब सोचने वाली बात है के आचानक हमारे आवेग की बात करते -करते ये ‘’हमारा’’ सिर्फ ‘’तुम्हारा’’ पर क्यो सिमट् गया? क्या इसलिये कि अब वह आवेग नहीं बचा? या इसलिये कि आवेग के खत्म होते ही पति पत्नि के बीच के सम्बन्ध हम से उतरकर तुम पर आके टिक जाते हैं और पति प्रेम की अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त कहीं और प्रेम तलाशते हुए बस उसके प्रेम की बात कर उसे उलझाता है?
इमानदरी से कहूँ तो पति का यह कहना कि ‘’तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा............ बरसता है.............. और खिली धूप सा’’ पत्नी को लगायी जा रही एक तरह की मस्केबाजी लगती है. शायद उपर की तीन पंतियान कहने के एवज़ में यह एक तरह की भरपायी हो ताकि समजिक और आपसी तौर पर वैवाहिक जीवन की सामाजिक गरिमा और अर्थ बना रहे और साथ में स्त्री के सामने प्रेम के भ्रम की स्थिति भी बनी रहे. क्योंकि अक्सर स्त्रियां शब्दों के इस मायाजाल को तब तक नहीं सम्झ पातीं या समझ्ना नहीं चहतीं जब तक तलवार सर पर ना लटक जाये. बहरहाल गम्भीरता से कहूँ तो यह स्त्री जीवन की सबसे बडी जटिलता है जहां पारस्परिक सम्बन्ध से एक पयदान नीचे उतर कर एक पति अपने भाव न केवल जीता है बल्कि उस अनुभूति से गुजरते हुए पत्नि पर यह प्रभाव छोड्ने की कोशिश करता हैं कि उसके समग्र् विचरों में सिर्फ ‘वह’ ही अवस्थित है ‘उसका’ ही नाम और प्रेम बचा है इसलिये कहता है ‘’तुम्हारा प्रेम जलधार जैसा, बरसता है और कमाल, खिली धूप सा’’ देखा जाये तो. यह एक पुरुष की स्वीकारोक्ति से अधिक अनुभूति की स्थिति हो सकती है किंतु ध्यान देने वाली बात है कि अब दोनों के आपसी प्रेम में सिर्फ औरत है पुरुष ने इससे अपने को अलग कर लिया है और तुम्हारे पर आकर ठहर गया है. इस सच को इस कविता की अगली पंक्तियां विस्तार देती हैं और कहती हैं -
तुम्हारा घर
प्रेम के साथ-साथ थोड़ी दुनियावी जिम्मेदारिओं से बना है
कभी आंटे का खाली कनस्तर बज जाता है
तो कभी बिटिया के इम्तहान का रिपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो
‘’तुम्हारा घर’’, ‘’दुनियावी जिम्मेदारी’’ ‘’कनस्तर’’ और ‘’बिटिया'' रेपोर्ट कार्ड बांचने बैठ जाती हो क़ा प्रयोग निश्चय ही बहुत चकित कर देने वाला है. यह इसलिये क्योकि जो घर हमरा होना चहिये था वह अब ‘’तुम्हारा’’ हो गया. यह स्थिति न केवल दुखद है बल्कि एक औरत के लिये जहां अकेले की जिम्मेदारियों को वहन करते हुए बोझ सा भी है. साथ ही उसकी अनकही पीडा भी है. महिलओं के लिये बहुत कठिन ये भी है के हमेशा ही उन्हें ग्रिहस्ती की जिम्मेदारियों के नाम पर सारे बोझ को ढोने की शिक्षा और सलाह के साथ चुप करा दिया जाता है. यही वज़ह है कि वह इसी में खुशी तलाशने को कई बार विवश भी होती रही हैं और महिलयें आज भी होती हैं. क्या वास्तव में घर की ऐसी शक्ल सही है ? क्या स्त्री पर ये जिम्मेदरियां इसलिये हैं कि वो परिवार में आर्थिक सहयोग नहीं करती? ऐसे बहुत से सवाल हैं जो आज भी भी ज्यों के त्यों खडे हैं और् जवाब में या तो एक बडी चुप्पी है या फिर परम्परा और औरत की जिम्मेदारी का कुछ परम्परागत पहाडा. और ऐसे जवाब सच कहा जाये तो संतुष्ट् तो कतई नहीं करते. इस कविता की सबसे महत्वपूर्ण पंक्तियां जो एक सम्बन्ध की अगली स्थिति को विस्तार देते हुए पति की स्वीकरोक्ति और औरत के चरित्र को भी परिभाषित करते हुए बहुत कुछ कहती हैं.
बहुत कुछ देखते हुए भी नहीं देखती तुम
तुम्हारे सहेजने से है यह सहज
तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम
हो सकता है लोग या बहुत से पाठ्क इसे स्त्री की महनता के रूप में देखें कि वह बहुत कुछ देखते हुए नहीं देखती किंतु वास्तव में यदि देखा जाये तो यह स्थिति सोचने वाला विषय है कि अखिर बहुत कुछ देखते हुए वह क्यों नही देखती वह्? क्या उसमें लडने का साह्स नहीं? य फिर वह डरती है ? डरती है तो किससे? पति के हिंसक हो जाने से ? या समाज में उपहास से? या फिर आपसी सम्बन्धों के विकट हो ज़ाने की कल्पना से? यदि गम्भीरता से देखा जाये तो यह स्त्री की एक दयनीय स्थिति की तरफ इशारा करता है. उसकी यह दयनियता हर स्तर पर दिखती है. चाहे वो सामाजिक स्तर पर हो, व्यक्तिगत् स्तर पर हो या फिर किसी भी मोर्चे पर किंतु सबसे बडी दयनीयता आर्थिक स्तर की है. इसीलिये स्त्री चुप रहती है और नही देखती य कहें नही देखना चाहती.
पुरुष अपने व्यव्हार और उसके सच को जानता है और यह भी जानता है के उसके अनदेखा करने और सम्बन्धों की थाती सहेज के रखने से ही यह सब जो दिख रहा है सब सहज़ है. बहुत रूक कर सोचने वाला वक्तव्य जो इस कविता का है वो है कि ‘’ तुम्हारे प्रेम से ही हूँ इस लायक कि कर सकूँ प्रेम’’. आखिर ऐसा क्यों है कि ‘उसका’ इन्हें प्रेम करने के लायक बनाता है? क्या यह प्रेम करने की विवशता है ? या फिर यह अपनी गलती के अह्सास की स्वीकरोक्ति? वैसे ये कुछ भी हो गलती की स्वीकरोक्ति जैसा नही है क्योंकि अगर ऐसा होता तो यह कतई नही होता कि -
कई बार तुम हो जाती हो अदृश्य जब
भटकता हूँ किसी और स्त्री की कामना में
हिस्र पशुओं से भरे वन में
लौट कर जब आता हूँ तुम्हारे पास
तुम में ही मिलती ही वह स्त्री
अचरज से भर उसके नाम से तुम्हें पुकारता हूँ
तुम विहंसती हो और कहती हो यह क्या नाम रखा तुमने मेरा
मुझे लगता है अब उपरोक्त पंक्तियों को परिभषित करने की अव्यशकता नहीं है. ना ही कुछ कहने की बस इतना कि कुलमिलाकर कहा जाये तो समय के साथ हम 21वीं सदी में जरूर पहुंच गये हैं किंतु समाजिक और अर्थिक रूप से स्त्री के जीवन में, स्त्री पुरुश सम्बन्धों और उसके दयित्वों में बहुत परिवर्तन नही आया है. पुरुष परिवार में घुसकर जीने की जगह दूर खडा हो अपनी विशेष् स्थिति में जीने का आदी है जिससे निकलना या तो वो चहता नहीं या फिर ना निकल पाऊँ इसकी परिस्थितियां उत्त्पन्न करता रहता है तकि स्त्री डर कर वहीं रहे जहां उसके पैरों में हज़ार जंजीरें बन्धी रहे. और वह धर्मपत्नी बनी रहे.
यह कविता पूरे तौर पर 21वीं सदी में भरतीय समाज , उसमें औरत और उसकी स्थिति को चित्रित करती है साथ ही यह व्यपक रूप से एक परिवार, उसमें स्त्री की स्थिति , पुरुष् की परिवार के प्रति सोच, उसका चरित्र सब कुछ परिभाषित करने में सफल रही है यही वज़ह है कि यह कविता जब भी 21वीं सदी के पति के चरित्र को परिभाषित किया जयेगा लोगोन द्वारा जरूर पढी जयेगी.
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