घर वापसी का गीत
१३ नवंबर 2011 को जाने-माने निर्देशक प्रोबीर गुहा ने जमशेदपुर में अपने नाटक "घर वापसी का गीत" नाटक की प्रस्तुति दी. यह प्रस्तुति अपने आप में विशेष इसलिये भी थी कि इसका मंचन जमशेदपुर की जानी-मानी लेखिका, आलोचक विजय शर्माजी के घर की छत पर किया गया. इस आयोजन का उद्देश्य सिर्फ नाट्य-मंचन नहीं बल्कि मंचन के बाद प्रोबीरदा द्वारा किये जा रहे रंगकर्म से समाज को सही दिशा में ले जाने के उनके प्रयास से लोगों को परिचित करना भी था. यह भी प्रयास किया गया कि प्रस्तुति में उपस्थित दर्शकों की प्रोबीर गुहा के नाट्यकर्म से जुड़ी जिज्ञासा का समाधान खुद प्रोबीरदा कर सकें तथा उनसे प्रश्नोत्तर के माध्यम से उनके साथ संवाद स्थापित किया जा सके. काफी हद तक यह आयोजन अपने इस उद्देश्य में भी सफल रहा.
हमारे देश की "घर वापसी का गीत" दरअसल जीवन से जुड़ी तमाम समस्याओं, परेशानियों और मानवता से परे जाते समाज को वापस जन-सरोकारों से भरी आत्मीयता की तरफ लाने की कोशिश है. वर्तमान में मंदी, निजीकरण, औद्योगिकीकरण, ग्लोबलाइजेशन के प्रभाव से हमारे देश के कोने-कोने में किसान आत्महत्या की तरफ बढ़ रहे हैं कृषि-विकास की वृद्धि दर महज आंकड़ों में तब्दील होकर रह गया है. बढ़ती बेरोजगारी, भूखमरी, बालश्रम, स्त्रियों के शोषण से भरे समाज के विद्रूप चेहरे को परिभाषित करता नाटक, पढ़े-लिखे सभ्य समाज के वोटों की राजनीति और उसके वहशीपन का अक़्स दिखाता है. शुतुरमुर्ग की तरह तथाकथित सभ्य समाज की खतरे से बचने की कोशिश की तरफ भी यह नाटक इशारा करता है. प्रोबीरदा ने इस नाटक के माध्यम से एक ऐसी बिसात की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित किया जिसमें हर बाजी हारता है एक आमजन और जीतने वाला करता है G-1, G-10, G-20 सम्मेलन, करता है मुनाफाखोरी ,बढ़ाता है अपराध और ले जाता है बी पी एल जनसंख्या के ऊंचे ग्राफ की तरफ.
नाटक ने दर्शकों की रोज़मर्रा की बेचैनी को बढ़ाने में उत्प्रेरक का काम किया. आज़ादी के ६४ वर्षों बाद भी अपने देश में एक आम आदमी की आशायें, सपने, लक्ष्य और चाह को ढ़ूंढ़ती, टटोलती और सवाल उठाती प्रस्तुति अपने संप्रेषण में सार्थक रही. प्रोबीर दा पिछले ४७ वर्षों से अपने रंग सफर में नयी जटिलताओं, नये प्रश्नों के साथ निरंतर जूझ रहे हैं पर वे सवाल जो आम आदमी की ज़रूरतों से उपजे थे वो आज भी जस के तस उनकी आंखों में गड़ रहे हैं.
एक इंसान का दर्ज़ा पाने के लिये व्याकुल हमारे देश का प्रत्येक आम आदमी अपने कंधों पे बढ़ते बोझ की अंतहीन प्रक्रिया से बेहाल है. इस बदहाली को संप्रेषित करने के लिये किसी बंधे-बंधाये व्याकरण से जुदा प्रोबीर दा ने अपनी अलग रंगभाषा आविष्कृत कर थियेटर को समृद्ध किया है. उनके रंग-उपकरण, रंग-स्रोत, रंग-संगीत सब अपने आप में विशिष्ट हैं और उनके रंगयात्री भी अपने आप में अनूठे हैं. जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने वाले वंचित तबके के ये वे लोग हैं जो सभ्य-सुसंस्कृत भाषा, व्याकरण और मुहावरों से भले अपरिचित हों पर ये रंगयात्री ही प्रोबीर दा द्वारा स्वयं और दर्शकों के लिये विकसित की गयी रंग-वैचारिकी को सहज जीते हुए साकार करते हैं. उनके नाट्य-कर्म में जन-सरोकारों से जुड़ी बातों और विचारों को गंभीरता से उठाने की कोशिश की जाती है. उनके किसी भी नाटक के लिये 'मंच' कोई सीमा नहीं. उन्हें और उनके रंगकर्मियों को दर्शकों का अपार जन-समूह और मंच नहीं चाहिये बल्कि एक ऐसा जन-समूह चाहिये जो इन चिंताओं पे विचार कर अपने आप को इंसान बनने की दिशा में जुट सके और ऐसा स्पेस चाहिये जिसके घेरे के चारों तरफ दर्शक सीधे अभिनेताओं से रूबरू हो पाये. इंटीमेट थियेटर की ऐसी भाषा जिसे समझने के लिये किसी विशेष ज्ञान से ज्यादा संवेदनशील मन से भरे एक अदद इंसान की ज़रूरत पड़ती है.
बिना स्क्रिप्ट के सिर्फ विचारों और इमेजेस का आधार, कम से कम संवाद और रंग-उपकरण, एक मज़बूत माध्यम बनती अभिनेताओं की देह, अधिक से अधिक सुरों के उतार-चढ़ाव और संगीत के कई साज उनके नाटक की ऐसी विशेषतायें हैं जिनके द्वारा किसी नाटय-प्रस्तुति को तैयार करने में उन्हें कम से कम ३ से ४ महीने लग जाते हैं.
हिंदी, बंगला और अंग्रेज़ी का सम्मिलित प्रयोग वे बिना किसी संकोच के अपने नाटक में करते हैं. लोक-रंग, लोक गीत के साथ-साथ प्रचलित धुनों का सही जगह पे इस्तेमाल जहां हममें खुशी की एक रेखा खींचती है वहीं देशसीमा लांघ दूसरे देशों में प्रयुक्त किये जाने वाले संगीत-वाद्य का प्रयोग भी हमें अचंभित करता है. इसके अलावा कवियों की आवाज़ को अपनी देह के माध्यम से उनके अभिनेता इस तरह अभिव्यक्त करते हैं कि कविता अपने में छिपे भावों, विचारों और लक्ष्य को सहजता से संप्रेषित करती है. पूरे नाटक में प्रोबीरदा के दर्द भरे आलाप और वाद्य-यंत्रों ने गीतों-कविताओं को मुखर बना उसे संप्रेषित करने में अपना विशिष्ट प्रभाव छोड़ा. छोटी-छोटी बेकार समझी जाने वाली चीज़ों का इस्तेमाल अपना अलग प्रभाव छोड़ती और उनकी समृद्ध रंग-दृष्टि से परिचित कराती है. हरी और सूखी पत्तियों द्वारा आशा और सपने, गुब्बारों द्वारा आकाश को छूने की चाह, दीपक द्वारा जीवन के अंधेरे को पार करना, पतंग से अपनी खुशी की अभिव्यक्ति बड़ी सहजता से हुई. इसके अलावे पालीथिन की थैलियों, प्लास्टिक की बेकार बोतलों, रस्सी और पानी के मटके जैसे प्रतीकों के प्रयोग ने अपना एक ख़ास प्रभाव छोड़ा. इस प्रस्तुति में भाग लेने वाले कलाकार थे- तपन, पन्ना, अभि, अफ़्तार, शिल्पी, मोहन, प्रतीक, अरूण और संगीत में स्वयं प्रोबीरदा.
मेरे आमंत्रण को स्नेहिल भाव से स्वीकार कर प्रोबीर दा ने जमशेदपुर के रंगकर्मियों, साहित्यकारों, कला-मर्मज्ञों और उपस्थित सभी दर्शकों को जागरूक बनाने की दिशा में अमूल्य योगदान किया है. नाटक के उपरांत एक संक्षिप्त संवाद दर्शकों और प्रोबीर दा के मध्य हुआ. संसाधनों की कमी से शायद यह आयोजन इस तरह सफल और संपन्न नहीं होता अगर विजय जी और सत्यजी ने अपनी छत का प्रयोग करने की अनुमति नहीं दी होती. इस आयोजन में रायगढ़ के कुछ रंगकर्मी भी शामिल हुए.
इससे पूर्व भी मैंने उनके नाटक मध्यमग्राम में जाकर देखे हैं. अपनी बात को शत-प्रतिशत दर्शकों तक पहुंचाने में उनकी हर प्रस्तुति की सफलता बयां करती है उनकी लंबी-कठिन रंग-यात्रा के प्रति प्रतिबद्धता. प्रोबीर दा का काम और प्रतिरोध करने का ये तरीका हमें सचेत करता है कि आशाओं और सपने के बगैर जीना सिर्फ एक जीती-जागती लाश के लिये संभव है. जब हम अन्याय-असमानता-उत्पीड़न के प्रतिरोध में स्वर उठायेंगे तब ही यह साबित होगा कि हममें कुछ सपने पल रहे हैं - हम जिंदा लाश नहीं, 'आम-आदमी' सही पर इंसान ज़रूर हैं.
अर्पिता श्रीवास्तव