"क" से
कविता
आई चिडि़या तो मैंने यह जाना
मेरे कमरे में आसमान भी
था...
देहरादून के कवि हरजीत की
इन दो पंक्तियों के साथ साथी लोकेश ओहरी ने “क“ से कविता नामक
बैठकी का आगाज किया. उन्होंने इन पंक्तियों के साथ “क“
से कविता कार्यक्रम में शामिल होने आये लोगों का स्वागत किया.
उन्होंने कहा कि यह अपने आप में एक खूबसूरत अवसर है मिल बैठने का अपनी प्रिय
कविताओं के साथ.
“क“ से
कविता यानी लिखने वालों की नहीं, पढ़ने वालों की संगत.
कविताओं से, साहित्य से, कलाओं से
प्यार करने वालों की संगत. देहरादून में इस तरह की यह पहली बैठकी हुई 24 अप्रैल को.
इस बैठकी की खासियत यही थी कि इसमें अपना “मैं“ उतारकर आना था. यहां कवि या श्रोताओं का जमावड़ा नहीं बल्कि पाठक और उनकी
प्रिय कविताओं के प्रेम की अनुभूतियां इकट्ठा थीं.
“क“ से
कविता की अवधारणा क्या है, कैसे यह विचार मिला, कहां से मिला और किस तरह आज देहरादून में इसकी पहली बैठकी संभव हुई इस
बारे में विस्तार से साथी सुभाष रावत और प्रतिभा कटियार ने बताया. मनीष गुप्ता के
प्रोजेक्ट हिंदी कविता का यह विस्तार है. हिंदी साहित्य इतना भरा-पूरा है, हम सबमें यह रचा-बसा है. हमें पता ही नहीं होता कि कब हमारे जे़हन में
कितनी कविताएं, कहानियां अपनी जगह बना चुकी होती हैं जबकि
पूछे जाने पर हम एक आम पाठक के तौर पर सिमट जाते हैं, सहम
जाते हैं. हमें लगता है कि कविताओं के बारे में बात करना कवियों का काम है. यह कोई
अलग दुनिया के लोगों का काम है. एक आम पाठक चुपचाप अपनी प्रिय कविताओं की कभी
कटिंग संभालता है, कभी तकिये के नीचे कोई संग्रह. उस आम पाठक
की पसंद में पैबस्त कविताओं को पाठक समेत सामने लाना. हिंदी को लेकर सकारात्मक,
रचनात्मक माहौल बनाना, कि किसी भी आलातरीन
महफिल में हिंदी बोलने के फख्र को महसूस करना, हिंदी की
खूबसूरत कविताओं की खुशबू को सारी दुनिया में फैलाया जा सकना...यही सपना है. इस
सपने को देहरादून ने अपनी पलकों में लिया और इस शाम का आगाज़ किया जिसका नाम रखा “क“ से कविता.
सुभाष ने अपनी बात रखते हुए
कहा कि अपनी जिंदगी में कभी न कभी कोई न कोई कविता हम जरूर लिखते हैं उसी तरह कोई
न कोई कविता भी पसंद करते हैं. वो कविताएं हमारी कुछ बात करती हैं, हमें प्यार से सहलाती हैं,
हमें ताकत देती हैं...जाने अनजाने हम सब कब साहित्य प्रेमी हो चुके
होते हैं हमें खुद पता नहीं चलता. हिंदी कविता प्रोजेक्ट के तहत मनीष गुप्ता भी
साहित्य की इसी उर्जा इसी प्यार को दूर तक फैलाने की बात करते हैं. हमें यह बात
पसंद आई तो हमने इसे अपने शहर से जोड़ना चाहा. हमने इसे आज शुरू जरूर किया लेकिन
यह किसी एक या दो या तीन व्यक्तियों का कार्यक्रम नहीं है. यह हम सबका कार्यक्रम
है इसलिए इसे कैसे आगे बढ़ाना है, किस तरह इसे एक सुंदर
सिलसिले में ढालना है यह हम सब मिलकर तय करेंगे.
सुभाष ने कहा कि हमारी ही
तरह कुछ और पाठक भी हमारे बीच हैं जिन्होंने अपनी पसंद की कविताओं को कहीं और पढ़ा
और आज वर्चुअल मीडियम के जरिये वो हमारे साथ शामिल होंगे. यह हमें तय करना है कि
पहले उन साथियों से कविताएं सुनें जो वर्चुअली हमारे बीच हैं या पहले हम अपनी
कविताएं सुनाएं.
सहमति बनी कि पहले एक बार
एक-एक कविता हम सब पढ़ते हैं. उसके बाद वर्चुअल दोस्तों की कविताएं सुनंेगे फिर
वक्त के मुताबिक और कविताएं पढ़ेंगे. लोकेश ओहरी ने हरजीत जी की एक और कविता बंद
दरवाजे सुनाते हुए शाम को आगे बढ़ाया-
'मुसाफिर हैं वो तपती रेत के सहरा
से लौटेंगे
खुले रहने दो इस घर के सभी
गुमनाम दरवाजे..'
गीता गैरोला जी ने युवा कवि
सुखविंदर सिधानी की कविता 'मैं
आपके ईश्वर से नाराज नहीं हूं' सुनाई. नंद किशोर हटवाल ने बताया कि किस तरह एक समय
में लीलाधर जगूड़ी जी की कविताओं ने उन्हें झकझोर दिया था. उन्होंने कविता सुनाई
कि 'तमाम आदमी लोग पहले बच्चे थे, बड़े
होकर कहते हैं कि बच्चा बेवकूफ होते हैं.'
डायट प्राचार्य राकेश जुगरान ने बड़े आत्मीय भाव से अली
सरदार जाफरी की कविता 'मेरा सफर' सुनाई.
डा. नूतन डिमरी गैरोला ने निर्मला पुतुल की कविता 'और तुम
बांसुरी बजाते रहे ' सुनाई. युवा साथी ऋषभ गोयल ने गुलजार
लिखित 'किताबें' कविता सुनाते हुए
बताया कि उन्होंने कविताओं के वीडियो सुनते हुए कविताओं के प्रति अपने भीतर के
प्रेम को महसूस किया और उसके बाद उन्होंने कई कविता संग्रह खरीदे. सुभाष रावत
मंगलेश डबराल के संग्रह से अपनी प्रिय कविता 'नये युग में
शत्रु' सुनाई. मदन मोहन कंडवाल ने हेमंत कुकरेती की कविताएं
सुनाईं. कक्षा ग्यारह की छात्रा अभीति मिश्रा ने जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' सुनाई...इसके बाद यह
सिलसिला प्रथा, अमित, कविता, सरगम, अभय, प्रीति आदि तमाम
साथी आगे बढ़ाते रहे...
विनोद कुमार शुक्ल, अहमद फराज, अली सरदार जाफरी, वीरेन्द्र डगवाल, मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी, कैफी
आजमी, नरेश सक्सेना समेत न जाने कितने ही कवि उस बैठकी में
मौजूद थे. अपनी रचनाओं के पीछे से झांकते हुए अपनी रचनाओं के पाठकों की आंखों में
तैरते हुए.
कविताओं को लेकर लोगों ने
अपने वो अनुभव भी साझा कि किस तरह उन्हें किस कविता ने स्पर्श किया, कैसे उन्हें उन कविताओं से
प्यार हो गया. इसके बाद इस बैठकी में वर्चुअल माध्यम के जरिये कुछ और साथियों ने
अपनी प्रिय कविताएं पढ़ीं. मनोज वाजपेई ने दुष्यंत कुमार की 'हो गई है पर पर्वत सी पिघलनी चाहिए', स्वानंद
किरकिरे ने पढ़ी भवानी प्रसाद मिश्र की 'जी हां हुजूर,
मैं गीत बेचता हूं' और जीशान ने पढ़ी नज़ीर
अकबराबादी की 'बंजारा' पढ़ी.
वक्त तेजी से गुजर रहा था
लेकिन कविताओं का प्रेम हाथ थामे बैठा था. लोगों के भीतर उनकी पसंद की कविताएं मचल
रही थीं. हमने फिर से साथियों से उनकी पसंद की कविताएं सुनीं और उनके अनुभवों और
सुझावों को सुनते हुए इस शाम को समेटने के लिहाज से कार्यक्रम को इसकी संरचना और
इसे आगे बढ़ाने को लेकर सबके सुझावों पर बातचीत को केन्द्रित किया.
लोगों ने कहा कि यह बहुत
खुशनुमा अहसास है इतने सारे कवियों की कविताओं को एक साथ बैठकर सुनना. अकेले हम
इतनी सारी, इतने
तरह की कविताओं तक नहीं पहुंच सकते थे. इस कार्यक्रम में कविताओं के विस्तृत संसार
से परिचय बढ़ाने की अकूत संभावना है. सभी साथियों की इस बात पर मजबूत सहमति थी कि
इसे अपनी प्रिय कविताओं पर ही केन्द्रित रखा जाना चाहिए. जैसे ही थोड़ा सा भी
स्पेस खुद की कविता पढ़ने को दिया कार्यक्रम गड़बड़ हो जायेगा. कुछ सुझाव जो आए-
1.
कार्यक्रम में सिर्फ अपनी पसंद की कविताएं ही पढ़नी हों यह
स्वरूप ही हमेशा रहे.
2.
कोई बड़े साहित्यकार भी इस कार्यक्रम में बतौर पाठक ही आयें
और अपनी प्रिय कविताएं सुनाएं. हम भी तो जानें जिन्हें हम पढ़ते हैं वो किन्हें
पढ़ते हैं.
3.
इस कार्यक्रम के बहाने हिंदी कविताओं, हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम
को आगे बढ़ाने के लिए तकनीकी के तमाम तरीके जरूर अपनाये जाने चाहिए.
4.
स्कूलों, कालेजों में भी नई पीढ़ी से इस बारे में संवाद होना चाहिए.
5.
कभी-कभार कविता के कुछ मुद्दों पर भी बातचीत हो सकती है.
6.
आत्ममुग्धता को तोड़ने का यह अभिनव प्रयास है इसका स्वरूप
ऐसा ही रहना चाहिए.
7.
आडियो, वीडियो मीडियम को और प्रसारित किया जाए और समृद्ध किया जाए.
8.
हमारे बीच हुए कविता पाठ को भी कभी-कभार रिकाॅर्ड किया जा
सकता है. जिसे बाद में कुछ और लोग भी सुन सकें.
9.
इस स्नेहिल शुरुआत की जिम्मेदारी अब हम सबकी है, इसलिए ज्यादा से ज्यादा लोगों
को इससे जोड़ना खासकर युवाओं को हम सबकी जिम्मेदारी है.
10.
पहली बार महसूस हो रहा है कि पाठकों की भी कोई दुनिया है.
इस दुनिया को हम मिलकर सजायेंगे, संवारेगे.
11.
कभी किसी थीम पर भी कविताएं पढ़ी जा सकती हैं.
12.
इस कार्यक्रम को हमेशा मुख्य आतिथ्य से मुक्त रखना होगा, यहां हमेशा सारे ही लोग मुख्य
अतिथि भी खुद हों और मेजबान भी खुद.
13.
कार्यक्रम की सफलता लोगों की भीड़ नहीं वो प्यार, वो स्नेह है जो कविताओं के
पढ़ते समय, सुनते समय महसूस हुआ.
14.
यहां पढ़ी गयी रचनाओं को हम एकत्र भी करते चलें तो आगे चलकर
हमारे पास अच्छा संकलन भी होगा.
ऐसे ही बहुत सारे विचारों
और ढेर सारे उत्साह के बीच अगली बैठकी की तारीख भी तय हो गई अगले महीने का आखिरी
इतवार...
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प्रतिभा कटियार
5 comments:
एक सार्थक आयोजन के लिए हार्दिक बधाई अपनी तरह का एक अलग कार्यक्रम
बहुत खुशी राहत और दिल भिगोने वाला अनुभव।अगले इतवार की बेसब्री से प्रतीक्षा और कवितायेँ जमा करने का उत्साह सब एक साथ चल रहा है।
वाह, बहुत बढ़िया कार्यक्रम। शुभकामनाएं। अलग तरह का अनुभव।
सुन्द्सर, सार्थक नया प्रयोग...कभी हिस्सा लूंगा...
खुले रहने दो इस घर के सभी गुमनाम दरवाजे..'बहुत खूब
उम्दा
दिलीप TANWAR
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