लीना मल्होत्रा राव
खुले में रचना' एक प्रशंसनीय आयोजन है जिसकी सफलता इसमें भाग लेने वाले साहित्यकारों, दूर दूर से सुनने आये १०० से अधिक श्रोताओं और सुनने के बाद कई कई चित्र व रिपोर्ट्स साँझा कर रहे मित्रों से आंकी जा सकती है. सईद अयूब जी द्वारा शुरू किया गया यह कार्यक्रम एक लम्बी उम्र जीएगा ऐसी आशा व शुभकामना के साथ अब तक लिखी गई रिपोर्ट्स में जो कुछ कहने से रह गया है उसे यहाँ कहने का प्रयास करुँगी. काफी समय से प्रतीक्षा में थी. अपने प्रिय कवियों वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी जी संवेदनशील कवयित्री सुमन केशरी अग्रवाल जी औरचर्चित युवा कवि अरुणदेव जी का काव्य पाठ सुनने को का सौभाग्य मिले ..
अरुण जी ..वह जितनी अच्छी कविता लिखते हैं उतनी ही अच्छी कविता पढ़ते भी हैं.. और उनकी कविताएँ सुनने के बाद याद रह जाती हैं..उनकी कविता की लय, पढने का अंदाज़ ठाह्राव सब कुछ नपा तुला है जो कि कम ही देखने व सुनने को मिलता है..पलकों के गिरने की भी एक लय होती है श्वांसो के चढ़ने का एक संगीत..उनकी लिखी कविता मौन की पंक्तियाँ हैं.. कुछ पंक्तिया यदि कविता सुनने के बाद टंगी रह जाएँ तो कविता भीतर प्रवेश कर गई है मैं ऐसा मान लेती हूँ.. जब वह बोलते हैं. कविता आप महसूस करते हैं अपनी धमनियों में शिराओं में .शब्दों के जंगल में विचार उत्पात मचाते हैं..और बहुत कुछ सोचने पर विवश करते हैं..अयोध्या कविता में सिर्फ राम या बाबरी से इतर भी एक दुनिया है एक गली है जो पूरी उजाड़ गई.. उस गली का भी उस स्थान को बनाने में कोई योगदान था अयोध्या में उन स्थानों पर अपनी कविता की पहुँच बना लेना व्ही कवि कर सकता है जो सिर्फ लिखने के लिए नही लिख रहा बल्कि महसूस करता है इसलिए लिख रहा है..
उनकी कविता की पंक्ति है
"हर ईंट की जुबां पर एक दर्द भरा किस्सा है
क्या पता....
समय का , सल्तनत का या खुद शायर का"
सुमन जी की कविताओं में मिथकों का प्रयोग उनकी कविताओ को एक विशेष चेहरा देता है..मैंने पहले भी उनकी कवितायेँ पढ़ी हैं.. लेकिन पहली बार मुझे कविता को पढने से अधिक सुनने में आनंद आया..वह कविता को इतनी संजीदगी से पढ़ती हैं उनकी आवाज़ में इतनी गहराई है , उनकी आँखों के भाव , चेहरे की अभिव्यक्ति शब्दों में छिपे अर्थों की कई परते खोलती चली जाती है..उनकी एक कविता 'औरत ' मुझे बहुत पसंद आई..कविता के भाव कुछ इस प्रकार हैं कि एक स्त्री बस एक चादर बिछाती है एक लोटा पानी रखती है.. आँखों पर हथेली से छाया करती है और ठीक सूरज की नाक के नीचे बना लेती है घर..यह कितनी गहरी कविता है.. जो एक स्त्री के सघन अस्तित्व और उसकी गरिमा को परिभाषित करती है.. मिथकीय पात्रों से तो मानो उनका संवाद ही स्थापित है..कृष्णा कविता में द्रौपदी कृष्ण से ही कहती है कि मैंने तो तुम्ही से प्रेम किया है.. यह है एक आधुनिक स्त्री का स्वर .. वह उसी पुरुष को अपना प्रेम सौपने को तत्पर है जो उसकी अस्मिता को सम्मान देना जानता है..सामाजिक अर्थों में खड़े पांचो पति इस भाव के समक्ष कितने अदने और बौने हैं..उनके पात्रों में बा और बापू भी सम्मिलित हैं.. उन्होंने अपनी कविता में उस क्षण को पकड़ा है जब एक स्त्री पूरा जीवन त्याग करने के बाद अब जीवन छोड़ने की देहरी पर खड़ी है और बापू जो नियम के पक्के हैं उनका हाथ पकड कर रोक लेती है.. बापू रुक जाते हैं..उनकी कविता 'मैंने ठान लिया है' न जाने कितनी स्त्रियों के जीवन की ध्वनि है.. जो स्वेच्छा से अपने पंख काट कर अनुकरण कर रही हैं और सहसा एक दिन उनकी नींद खुलती है और वह आकाश में उड़ना चाहती है.. अपना अस्तित्व तलाशना चाहती हैं..अशोक वाजपेयी जी ने भी अपनी टिप्पणी में इस बात का ज़िक्र किया कि महाकाव्यों का प्रभाव इस कदर है जीवन में कि वह इतिहास से भी अधिक जीवंत चरित्रों की रचना कर चुके हैं.. और उनका निरंतर विस्तार हो रहा है.. सुमन जी की कृष्णा
कविता का सन्दर्भ लेते हुए उन्होंने इस बात को रेखांकित किया..
अशोक वाजपेयी जी की कविताएँ छोटी व प्रभावी थी उनकी कविताओं की व्याख्या दोनों रिपोर्ट्स में की जा चुकी है लेकिन एक बहुत महत्वपूर्ण बात जो उन्होंने कही और जिस पर वरिष्ठ साहित्यकारों को ध्यान देना चाहिए वह यह कि कुछ कवि अच्छे होते हैं और कुछ कविताएँ अच्छी होती हैं..लेकिन उन्हें सम्हालने का बोध हिंदी साहित्य में नही हुआ है..जिस प्रकार अच्छे कवि खराब कविताएँ लिखते हैं उसी प्रकार हमेशा खराब कविता लिखने वाला कवि कभी अच्छी कविता भी लिख देता है.. तो उसकी अन्थ्रोलोजी (शायद यही शब्द प्रयोग किया था उन्होंने) लिखने की परम्परा अभी विकसित नही हुई..मुझे लगता है कि इसकी शुरुआत उन्हें ही करनी चाहिए..एक प्रश्न पूछा गया कि आज इतनी कविताएँ लिखी जा रही हैं..लेकिन अज्ञेय या मुक्तिबोध जैसे बड़े कवि क्यों पैदा नही हो रहे..इसका अशोक जी ने बहुत सटीक उत्तर दिया कि उस समय भी साढ़े चार हज़ार कवि थे लेकिन बचे कितने साढ़े चार..उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर ग़ज़ब है.. वातावरण बिलकुल बोझिल नही होने दिया..अरुण जी ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि सिर्फ लिखने के लिए कविता नही लिख रहे हैं वर्ना उनका दूसरा काव्य संग्रह आने में इतने वर्ष न लगते..अशोक जी ने अरुण देव जी की कविता मीर पर टिप्पणी देते हुए कहा कि सिर्फ अपना दर्द नही दूसरों का दर्द भी समझना उसे कहना कविताई है..और अयोध्या को जिस दृष्टि से अरुण जी ने अपनी कविता अयोध्या में रखा है वह वास्तव में प्रशंसनीय है..
एक प्रश्न जिसे रेखांकित करना चाहूंगी कि कविता में कोटेबिलिटी कम हो रही है..अशोक जी ने कहा कि आज की कविता देख कर ऐसा लगता है कि एक ही सर है जो इतनी सारी कविता लिख रहा है लेकिन बड़ा कवि भी इन्ही में से निकलेगा..अशोक जी जैसे वरिष्ठ साहित्यकार का सानिध्य पाना उन्हें सुनना अपने आप में एक अनुभव था.. बातों ही बातों में उन्होंने न जाने कितनी बातें बता दी जैसे कि मुक्तिबोध की कविता कभी ख़त्म ही नही होती थी.. और अज्ञेय ने मौन पर इतनी चर्चा की लेकिन शब्दों का विपुल भंडार छोड़ कर चले गये.. जबकि शमशेर ने इस बारे में कहा नही लेकिन मौन अधिकतम छोड़ा..जब कविता पढने के बारे में बात हुई तो उन्होंने कहा कि आज की कविता पढने के लिए लिखी जा रही है..और फैज़ बहुत खराब पढ़ते थे..तो यह कुछ निजता लिए हुए जानकारियाँ थी जो संभवतः उनकी पीढ़ी के व्यक्ति से ही मिल सकती हैं..इस कार्यक्रम की एक मुख्य विशेषता यह थी कि इसमें गीता पंडित इन्द्रपुरम से आई तो अंजू शर्मा इन्द्रलोक से विपुल शर्मा पालम से आये तो सीमान्त सोहेल गाजियाबाद से.. डा पुरषोत्तम अग्रवाल ने श्रोताओं में बैठ कर कार्यक्रम की गरिमा को और अधिक घनत्व प्रदान किया..उनकी एक टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण थी कि भाषा भी एक सामाजिकता है इसलिए टोकनी जैसे विलुप्त होते शब्द के प्रति संवेदना रखना भी एक सामाजिक सरोकार है.. उन्हें एक दिन पहले आकाशवाणी के कार्यक्रम में कबीर पर बोलते हुए भी सुना था.. उनके ज्ञान व प्रस्तुति व विश्लेषण तथ्यों को नई रौशनी में देखने का एक दृष्टिकोण देते हैं.. कार्यक्रम बेहद संजीदा सफल व सुखद था.. कार्यक्रम चल रहा था और सब आनंद मग्न थे.लेकिन इसे ख़त्म होना था.. शायद पूरे कार्यक्रम में कुछ खामी थी तो वह यही थी कि इसे ख़त्म भी होना था..
अंजू शर्मा
कल यानि 11/3/2012 को मित्र सईद अयूब के सौजन्य से JNU के स्कूल ऑफ़ लेंग्वेजेस में 'खुले में रचना" कार्यक्रम का आयोजन किया गया! पिछले महीने जब सईद जी से इस बारे में सुना था तो जैसा कि बाकी लोगों का ख्याल था, जेहन में एक तस्वीर कौंधी.....खुले में रचना यानि प्रकृति के निकट खुले परिवेश में रचना.....शायद तब शब्दों की गहराई की ओर मेरा ध्यान नहीं गया था! कल कार्यक्रम का हिस्सा बन कर मैंने महसूस किया और बकौल सईद "खुले में रचना यानि रचनाकार (जो कि इस बार कवि थे), साहित्यकारों और श्रोताओं के बीच खुली चर्चा"! तो नाम की सार्थकता पर हम फिर विचार करेंगे, पहले मैं आपको बता दूँ कि जिन तीन प्रमुख कवियों ने इस आयोजन में बतौर कवि शिरकत की वे थे........युवा समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर अरुण देव, जानी मानी सुप्रसिद्ध संवेदनशील कवयित्री सुमन केशरी और कार्यक्रम के अध्यक्ष की भूमिका में थे वरिष्ठ कवि आदरणीय अशोक वाजपेयी जी! मेरे लिए ये कार्यक्रम इन मायनों में बड़ा ही महत्वपूर्ण था कि मैं पहली बार अपने प्रिय कवियों की कवितायेँ उनके मुख से सुन रही थी!
कार्यक्रम से पहले हुई बातचीत में अरुण देव जी ने JNU के अपने पुराने दिनों की यादें ताज़ा की तो उनका सहज जुडाव बड़ी खूबसूरती से सामने आया! बहुत कुछ वैसे ही लगा ये अनुभव, जब पिछले दिनों मैं अपने कॉलेज में एक कार्यक्रम में आमंत्रण पर गयी थी! कार्यक्रम की शुरुआत में सईद जी ने खुले में रचना आयोंजन के औचित्य पर कुछ शब्द कहे तो सभी श्रोताओं (जिनमें मैं भी शामिल थी) की उत्सुकता चरम पर पहुँच गयी! पहले आमंत्रित कवि थे अरुण देव!
अरुण देव
अरुणजी के बारे में कुछ बताना शायद मेरे लिए संभव नहीं होगा, क्योंकि हर बार कुछ 'बहुत कुछ" में बदल जाता है! अरुण जी को सुनना एक ऐसा अनुभव था जिसके लिए घडी पर निर्भर करना थोडा सा मुश्किल था! उन्होंने अपनी पहली कविता "लालटेन" सुनाई! अशोक जी के शब्दों में "अरुण जी लालटेन, अरुणजी की ही लालटेन थी, विष्णु खरे जी या मंगलेश डबराल जी की लालटेन से बिलकुल अलग! एक लगभग भुला दी गयी वस्तु पर इतना सजीव चित्रण तो अरुणजी ही कर सकते हैं! इसके बाद उन्होंने एक कविता "लाओ-त्से और कन्फ़ुसिअस' की मुलाकात पर एक कविता पढ़ी! फिर सुनाई मेरी प्रिय कवितायेँ जिन्हें कई बार पढ़ा है "सिरहाने मीर के", "अयोध्या", "मेरी नाव", "छल", "एकांत" और अंत में "पत्नी के लिए"! एक बार अरुण जी ने एक कविता के बारे में कहा था "जहाँ जितने चाहिए उन्हें ही शब्द, न कम, न ज्यादा"! अरुण जी की कविताओं को पढ़ते या सुनते समय ये "टेग लाइन" अक्सर याद आ जाती है! यूँ भी उनकी कविताओं मेरे लिए '३ डी इफेक्ट" लिए होती हैं जैसे मीर को सुनते वक़्त दुर्रानियों के लश्कर की टापें महसूस करना या एकांत कविता में एक दृश्य का जीवंत हो जाना! अयोध्या में एक ही दिन में उजाड़ दी गयी तवायफों का दुःख था और 'पत्नी के लिए' कविता से जुड़े तमाम प्रसंग भी जीवंत हो गए जब फेसबुक पर पिछले साल इस कविता पर जोरदार बहस हुई थी, चूँकि मैंने स्वयं वहां आक्रोश में ढेरों टिप्पणियां की थी तो जब अरुण जी ने इसका जिक्र किया तो हम सभी उस किस्से को यादकर हंस पड़े! अरुण जी का कविता पढने का तरीका बहुत प्रभावी है और देर तक असर डाले रखता है!
सुमन केशरी
सुमन दी को एक कवि के तौर मैं एक प्रशंसक के नाते काफी पहले से जानती हूँ! फेसबुक से थोड़ी बहुत पहचान भी थी! मेरे लिए वह गर्व का क्षण था जब हम दोनों की कवितायेँ एक साथ एक संकलन का हिस्सा बनी थी लेकिन मैं उनसे पहली बार मिली! उनके अपनत्व ने और स्नेहिल स्पर्श ने मेरा मन मोह लिया, लगा ही नहीं कि दी से पहली बार मिल रही थी! "डायलोग" के सिलसिले में हुई संक्षिप्त बातचीत से मेरा रहा सहा संकोच भी जाता रहा! सुमन दी ने कई कवितायेँ सुनाई और जैसा कि भूमिका में सईद जी कहा, बकौल केदारनाथ जी "सुमन दी संवाद-धर्मी गंभीर कविताओं के लिए जानी जाती हैं!" सुमन दी ने "द्रौपदी", कृष्णा, धुंध में औरत, बहाने से, मैंने ठान लिया है, बेटी के लिए, औरत, बा और बापू, स्त्री का का अपराध और लोहे से पुतले नामक कवितायेँ सुनाई! सुमन दी की खासियत है कि वे कविताओं में मिथकों का भरपूर प्रयोग करती हैं, और संवेदनशीलता से अनबुझे सवाल को सामने लाकर खड़ा कर देती हैं! उनकी दृष्टि न केवल मिथकीय चरित्रों के चित्रण पर होती है अपितु कई कविताओं में वे ऐसे अनछुए पहलू सामने लाती है जो लीक से हटकर कई समानांतर धाराओं में पाए जाते हैं, द्रौपदी, सीता, कृष्ण, जबाला आदि कई कई मिथकीय पात्र सुमन दी की कविताओं में साकार हो प्रासंगिक हो उठते हैं! मैं यहाँ कहना चाहूंगी कि सुमन दी बहुत धैर्य से कविता को प्रस्तुत करती है, सहज सम्प्रेषण उनके पाठन की विशेषता है! समय रुक जाता है एक अलग परिवेश में आप स्वयं को पाते हैं! इनमें मैंने ठान लिया है में स्त्री विमर्श एक विनम्र रूप से सामने आया!
अशोक वाजपेयी
अशोक जी का परिचय देना सूरज को दिया दिखाना होगा, और ऐसा दुस्साहस कम से कम मैं तो नहीं कर पाऊँगी! अपने अध्यक्षीय संभाषण की शुरुआत अशोक जी ने बड़ी विनोदपूर्ण शैली से की और धीरे धीरे वार्ता गंभीरता की ओर बढती रही! उन्होंने दोनों कवियों की कविताओं को उद्धृत किया और उन पर अपने विचार सभी से साझा किये! अशोक जी ने कविता पाठ की विशेषता पर अपने विचार प्रकट किये, मुझे सुखद अनुभूति हुई क्योंकि पिछले महीने बिलकुल यही सब एक स्टेटस में मैंने अपनी वाल पर लिखा था! उन्होंने कहा कि कविता पढना और सुनना अलग बातें हैं, कविता पाठ में मानवीय उपस्थिति, कवि की आवाज़ जिसे पढ़ते हुए हम सुन नहीं पाते, वांछित जगहों पर रुकना आदि कुछ बाते हैं जो कविता पढने में नहीं हो पाती! उन्होंने जातीय स्मृति शब्द का उल्लेख किया और कविता के कई कामों के बारे में बताया, जैसे कविता का काम है भूलने से रोकना, एक अन्य काम है ठिठकाना, यानि भाषा शब्द, बिम्ब चरित्रों पर ठिथ्काती है, एक काम है प्रत्याशित को अप्रत्याशित में बदलना!
इसके बाद उन्होंने अपनी कई कवितायेँ भी सुनाई, जैसे टोकनी, छाता, जूते, पत्ती, सूटकेस, ऐसा क्यों हुआ, मित्रहीन आकाश, अपने शब्द वापिस, क्या यही बचता है, अपने हाथों से! अपनी इन सभी कवियों को उन्होंने विनोद से अवसाद-ग्रस्त कवितायेँ कहा! उनकी इन कविताओं में समाज, परिवेश, रिश्ते-नाते यहाँ तक कि टोकनी जैसे शब्द के खोने पर उनकी अपनी चिंताएं दिखाई पड़ती थी! अनुभवजनित वरिष्ठता उनकी अभिव्यकि को नए आयाम देती है!
परिचर्चा
इसके बाद परिचर्चा के सत्र का आरंभ हुआ! वहां कवियों और संचालक सईद जी के अतिरिक्त कई मित्र भी उपस्थित थे! श्री पुरुषोत्तम अग्रवाल, कविता कोष फेम ललित कुमार जी, त्रिपुरारी कुमार शर्मा, गीता पंडित (गीता दी), शोभा द्विवेदी मिश्रा, राघव विवेक पंडित, सीमान्त सोहल, लीना मल्होत्रा राव, भारत तिवारी, विपुल शर्मा, सुदेश भारद्वाज, jnu से जुडी सुधा जी! गीता दी से मिलकर भी मुझे बेहद ख़ुशी हुई, लम्बा इंतज़ार ख़त्म हुआ, स्नेह से भिगो देती हैं गीता दी! इसके अतिरिक्त JNU से जुड़े बहुत से छात्र, शोधार्थी, और प्रोफ़ेसर भी वहां उपस्थित थे! सभी ने अपनी जिज्ञासाएं सामने रखी, आयोजन के नाम के अनुरूप जोरदार बहस भी हुई, विशेष रूप से कहना चाहूंगी कि ललित कुमार, भरत तिवारी और युवा जोशीले त्रिपुरारी जो अक्सर बेहद चुप चुप से नज़र आया करते हैं, ने कविता के स्वरुप के पक्ष में अपने अपने विचार रखे! कविता के स्वरुप, लोकप्रियता, गेयता, quotability आदि कई विषयों पर अपने विचार रखे गए, यहाँ एक सवाल आया कि कविता एक मोड़ पर ले जाकर छोड़ देती है, क्यों....दूसरा कि कविता का स्वरुप जटिल क्यों है और इसका सम्प्रेषण सहज क्यों नहीं है, बहुत ढेर तक इस बार बहस चली, यहाँ मैं दो बातों का उल्लेख करने से स्वयं को रोक नहीं पा रही हूँ, पहला अशोक जी ने एक अरबी कहावत का जिक्र किया "यदि किताब और खोपड़ी टकराए और खन्न कि आवाज़ आये तो यह नहीं मान लेना चाहिए कि आवाज़ किताब की थी! दूसरा त्रिपुरारी जी ने दो बिम्ब सामने रखे, कि यदि एक बंद कमरे में सूर्यास्त की तस्वीर दिखाई जाये तो ये आप पर निर्भर करता है कि आप केवल तस्वीर देखना चाहेंगे या खिड़की के बाहर सूर्यास्त भी देखेंगे, दूसरा उदहारण उन्होंने दिया कि यदि मैं आपको ऊँगली से चाँद दिखाता हूँ तो ये आप के ऊपर है आप चाँद देखते हैं या मेरी ऊँगली! ललित जी ने भी छंदमुक्त कविता की घटती लोकप्रियता पर अपनी चिंताएं सभी से साझा कि! एक वक़्त आया कि सभी बराबर इस पर बोल रहे थे, शंकाएं आ रही थी तो समाधान भी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे! पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने भी अपनी विचारों द्वारा सभी को अवगत कराया! कुल मिलकर ये आयोजन अपनी सार्थकता के चरम पर पहुँच गया था! जाहिर है कि कोई भी नहीं चाह रहा था कि ये चर्चा रुके! पर समय के हाथों मजबूर होकर सईद जी को समापन की घोषणा करनी पड़ी! मैं आप सभी को बताना चाहती हूँ कि खुले में रचना के अगले चरण में कथाकारों की भागेदारी इसे रोचक बना देने वाली है!
अंजू शर्मा की विशेष टिप्पणी......यकीन कीजिये सपने सच भी हुआ करते है जैसे कल मेरा हुआ.....
विपुल शर्मा
खुले में रचना (कविता, साहित्य, कहानी, उपन्यास, ब्लाग्स, ई-पत्रिका) - ११ मार्च, २०१२, स्थान जे एन यु में स्थित language बिल्डिंग का committee रूम! आयोजन था खुले में रचना ! जो अपने नाम को सार्थक करता प्रतीत हुआ.. जहाँ रचनाकारों ने अपनी रचनाओं को पढ़ा, सुनाया, जिया... वहीँ श्रोताओं ने रचनाओं का श्रवण किया, सराहा, आत्मसात किया!
खुले में रचना -१ में रचनाकार थे अरुण देवजी, सुमन केशरीजी, अध्यक्षता की श्री अशोक वाजपयीजी ने और मंच संचालन किया सईद अयूबजी ने! उपस्थित श्रोतागणों में डा. पुरुषोत्तम अग्रवाल, गीता पंडित, लीना मल्होत्रा राव, त्रिपुरारी कुमार शर्मा, सोहल भाई, अंजू शर्मा, राघव विवेक पंडित, ललित, चन्द्रकान्ता और अन्य कई fb मित्रगण और सुधिजन भी शामिल थे! कार्यक्रम के आरम्भ में सईद ने अरुण देव को काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित किया..!! अरुण देव ने मंच पर आते ही अपने जे.एन.यू. से पुराने जुड़ाव को सबके सामने कुछ इन शब्दों में कहा ... NOSTALGIC महसूस कर रहा हूँ! अरुण देव जे.एन.यू. से ही पढ़े हैं.. उनके मुताबिक उन्होंने जे.एन.यू. से बहुत कुछ सीखा है और उन्हें जे.एन.यू. अपना घर ही प्रतीत होता है! अरुण देव ने अपनी कविता का आरम्भ 'लालटेन' से किया..! लालटेन की एक पंक्ति 'सयंम की आग में जैसे कोई युवा भिक्षुणी' अभी भी मन मस्तिष्क में कौंध रही है..! इसके बाद उन्होंने ‘शास्त्रार्थ’ , ‘अयोध्या (सरयू के पार)’ , 'मीर’, 'एकांत', 'देह' और बहुचर्चित ‘पत्नी के लिए’ आदि कविताएँ सुनायी. 'मीर' कविता ने जहाँ 'काबे' और 'कैलाश' को एक कर दिया वहीँ 'अयोध्या' ने वहां पर हुई एक घटना ने विचलित कर दिया..!! पत्नी के लिए कविता का पाठ सभी श्रोतागणों को अभिभूत कर गया..!!
अरुण देव के काव्य-पाठ पश्चात सुमन केशरीजी को काव्यपाठ के लिये आमंत्रित किया गया! सईद ने बताया कि केदार नाथ सिंहजी सुमन केशरीजी की कविताओं को संवादधर्मी और गंभीर कविता कहते हैं. सुमनजी ने मंच पर अपने उदगार में कहा की उनकी बहुत समय से यह मनोकामना थी कि वे कभी अशोक वाजपेयी जी के समक्ष काव्य-पाठ करें..!! सुमनजी ने कहा की वे मिथकों-पौराणिक चरित्रों पर कविताएँ लिखती हैं.. लेकिन कविता लिखते समय वह ध्यान रखती हैं वे चरित्र अपनी भूमि से अलग हो जाएँ. प्रत्यक्षत: उन चरित्रों के मूल स्वरुप को ध्यान में रखते हुए उनके विकास की कल्पना करती हैं! यहाँ उन्होंने जयपुर में प्रकाशित ‘स्त्री होकर सवाल करती है’ संग्रह का उल्लेख भी किया! तत्पश्चात उन्होंने अपनी कविता ‘दौपदी’ से काव्य-पाठ आरम्भ किया.’ उनकी कविता ‘कृष्णा’ की कुछ पंक्तियाँ यहाँ उदृत करना छटा हूँ..."सुनो कृष्ण / मैंने तुम्हीं से प्रेम किया है/ दोस्ती की है/ तुमने कहा अर्जुन मेरा मित्र है, मेरा हमरूप, मेरा भक्त है/तुम इसकी हो जाओ / मैं उसकी हो गई”......... कविता जैसे मंत्रमुग्ध कर गयी सभी श्रोताओं को ! भावनाओं का वेग सभी श्रोताओं को महसूस हो रहा था..!! कृष्णा के पश्चात उनकी अन्य कवितायेँ रही - धुंध में औरत, बहाने से, मैंने ठान लिया है, बेटी के लिए, बा और बापू, स्त्री का अपराध, तथा 'लोहे का पुतला'!!
बात कविता की हो और कवियों की हो तो स्पष्ट है...हर मौलिक कवि खुद को दुसरे से अलग ही प्रस्तुत करता है..! ऐसी ही कुछ टिप्पणी थी अशोक वाजपयी जी की..! सुमनजी के सम्मोहित करने वाले काव्य-पाठ के पश्चात मंच अशोक वाजपेयी जी को सौंपा गया..! उन्होंने दोनों कवियों को अपने-अपने ढ़ंग के अलग-अलग कवि बताया..! अशोक जी ने कविता पर कई महतवपूर्ण जानकारीयां दी और कविता पर टिपण्णी भी की.. उन्होंने कहा कविता का प्रमुख कार्य है 'ठिठ्काना', ' प्रत्याशित को अप्रत्याशित में बदलना', 'सफलता में विफलता को बताना' और 'विडंबना को दुसरे की विडंबना बताना'! अशोकजी ने सुमनजी की कविता कृष्णा का उल्लेख किया जिसमे अप्रत्याशित रूप से द्रौपदी का कृष्ण से अपने प्रेम का स्वीकार करना बताया है! उन्होंने अरुणजी की कविता ‘लालटेन’ 'मीर' और 'अयोध्या' पर अपनी बात कही! अशोकजी ने कहा उन्हें लगता है कविता में अब अतीत की आतुरता वापिस गयी है जो कि अच्छी बात है! बातों ही बातों में अशोकजी ने हिंदी कविता के रचनाकारों में कई बड़े नाम भी लिए जैसे मुक्तिबोध, शमशेर, निराला, और अज्ञेय आदि! इस बीच अशोकजी ने अपनी कुछ कविताओं 'टोकनी' 'छाता' 'जूते' 'सूटकेस' ऐसा क्यों होता है' 'मित्रहीन आकाश' 'अपने शब्द वापिस' 'अपने हाथों से उठाओ पृथ्वी' का पाठ किया, जिसे श्रोताओं ने मुक्तकंठ से सराहा! 'सूटकेस' कविता बहुत अपनी सी लगी! 'सूटकेस' में बंद होने के बाद उसे पुन: खोल कर अंतिम क्षणों में रखे जाने वाले कुछ अनमोल भावों और सामान का बहुत भावुक अभिव्यक्ति लगी!
यह कार्यक्रम अधूरा सा रहता यदि उसमे श्रोताओं का योगदान न होता ! श्रोताओं (ललित, डा. पुरुशोत्तामजी, सुधाजी, त्रिपुरारी कुमार शर्मा आदि) ने जहाँ अपनी-अपनी स्वतंत्र टिप्पणियाँ की वहीँ रचनाकारों से अपने - अपने प्रश्न भी किये जिनके संतोषजनक उत्तर अशोकजी, अरुणजी और सुमनजी ने दिए! इस वार्तालाप में जो बात निकल कर आयी वह थी, "कविता का प्रमुख कार्य रास्तों की संभावनाओं का बताना है, बाकी रास्ता तो श्रोता/पाठक को स्वयं चुनना होगा"! लगभग ३ घंटे तक सफलतापूर्वक चला यह कार्यक्रम! कार्यक्रम समाप्त नहीं होना चाहता था किन्तु स्थान की उपलब्धता समय की पाबंदी ने हम सभी को पुन: दुबारा मिलने की कामना के साथ और पुन: 'खुले में रचना'
करने की इच्छा के साथ वहां से विदा ली!
अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी
अभी कुछ घंटों पहले जे.एन.यू.-एस.एल. के कमिटी रूम में आयोजित ‘खुले में रचना -१’ से लौटा हूँ. मैंने पूरा कार्यक्रम सुना. इसपर अपनी ओर से रपट और अंततः अपनी बात रखना चाहता हूँ. एक पोस्ट में यह संभव न हो सकेगा इसलिये तीन हिस्सों में बाँट दे रहा हूँ, १- आमंत्रित कवयित्री सुमन केसरी और अरुण देव का काव्यपाठ और उसपर साहित्यकार अशोक वाजपेयी की टिप्पणी. २- अशोक वाजपेयी की कविताएँ, और उनके विचार(जो प्रश्नोत्तर आदि के क्रम में आए). ३- अशोक वाजपेयी की बातों पर कुछ अपनी बात(खास करके कविता, गुणवत्ता और लोकप्रियता से ताल्लुक). फिलहाल यह पहला हिस्सा प्रस्तुत है:
कार्यक्रम निर्धारित समय से कुछ विलंब से शुरू हुआ. संचालन सईद साहिब कर रहे थे. उन्होंने शुरुआत में अरुण जी को कविता पढ़ने के लिये आमंत्रित किया. अरुण जी ने इस तरह अपनी कविताएँ और बातें रखी: (बीच बीच में ईडिट कर कुछ ‘बातें’ भी सिंगल इन्वर्टेड कॉमा के साथ रख रहा हूँ)
‘जे.एन.यू. में पढ़ा हूँ, यहाँ से बहुत कुछ सीखा है, यहाँ आना और कविता सुनाना घर में आने जैसा है. आँगन में आने पर जैसा लगता है! यह आप लोगों का स्नेह है जो आपने इतना मान दिया. कुछ कविताएँ सुना रहा हूँ, कि जिससे कवि का भावबोध आ जाय! पहिली कविता जो आपको सुनाना चाहता हूँ उसका शीर्षक है ‘लालटेन’.’
इसके बाद उन्होंने ‘शास्त्रार्थ’ , ‘अयोध्या’ , ‘पत्नी के लिए’ ‘सिरहाने मीर के’ आदि कविताएँ सुनायी. ‘पत्नी के लिये’ कविता पर उनका कहना रहा कि यह फेसबुक पर बड़ी विवादास्पद कविता रही है
अरुण जी के उपरांत सुमन केसरी जी को काव्यपाठ के लिये आमंत्रित किया गया जिनके संदर्भ में सईद साहिब ने कहा कि ‘सुमन जी की कविताओं को केदार नाथ सिंह जी संवादधर्मी गंभीर कविता कहते हैं.’ सुमन जी ने कहा:
‘कवितापाठ पहले किया है लेकिन आज आप लोगों के बीच हूँ तो जैसे पहली बार पढ़ने जैसा हो. मेरी मनोकामना थी कि कभी अशोक वाजपेयी जी के समक्ष कविता पढ़ूं, आज बड़ा अच्छा लग रहा है कि इतने सारे कवि नैजवान के साथ पढ़ रही हूँ. जैसा कि बताया गया कि मैं मिथकों-पौराणिक चरित्रों पर कविताएँ लिखती हूँ, उन चरित्रों को आज की दृष्टि से देखती हूँ, लेकिन मैं ऐसा भी नहीं कर सकती कि वे अपनी भूमि से अलग हो जाएँ. उनके मूल को देखते हुये उनके विकास की कल्पना करती हूँ, इस तरह से मैं अपने मिथकीय चरित्रों को उठाती हूँ. पहले मैं आपको ‘स्त्री होकर सवाल करती है’ संग्रह की कविता ‘दौपदी’ को पढ़ती हूँ कि मुझे लगता है कि पूरे संग्रह के शीर्षक में इसकी थोड़ी सी अनुगूँज है.’
सुमन जी का रचना-कर्म महज स्त्री-विमर्श की हदों में बंधा नहीं है, उन्होंने कविता के अलग रूप-रंग भी दिखाया.
इसके उपरांत दोनों कवियों पर अशोक वाजपेयी जी ने अपनी टिप्पणी प्रस्तुत की. अशोक जी ने कहा:
‘‘मित्रों! कविताओं को सुनना और उसके बाद उसपर टिप्पणी करना कोई उत्साहजनक कार्यवाही नहीं है. .. मैं दो-तीन बातें कहना चाहता हूँ. एक तो यह सही है कि हमारी ज्यादातर कविता पढ़ी जाने के लिये लिखी गयी है. वह सुनाने के लिये नहीं लिखी गयी है. एक जमाना था जब सुनाने के लिये लिखी जाती थी. लेकिन अब बुनियादी संस्कार में फर्क आया है. जब हम किसी कवि से कविता सुनते हैं तो दूसरा फर्क पड़ता है, उसकी उपस्थिति का फर्क पड़ता है. उसके बलाघात का फर्क पड़ता है. जिसे हम पढ़ते समय नहीं देख पाते. तो..!
दोनों अपने-अपने ढ़ंग के अलग-अलग रंग के कवि हैं. दोनों में एक बात समान है. जिसका जिक्र सुमन जी ने किया है. कि हमें हिन्दी समाज में व्याप्ति लाना है तो उसकी एक जातीय स्मृति होती है. उस जातीय स्मृति का संबंध मिथक पुराण या इतिहास ग्रंथ से ही नहीं है, हर भाषा की एक जातीय स्मृति होती है. वह कवि का लोक होता है. कविता का एक काम हमको भूलने से रोकना है. कविता का दूसरा काम वो है जिसे हम अधीरता में, जल्दबाजी में, - हालाकि मैं नहीं समझ पाता कि लोगों को इतनी जल्दबाजी काहे की है – नहीं ध्यान देते, ठहराव लाना है. इस अनावश्यक-अनर्थक तेजी के बीच कविता का एक काम ठिठकाना है. वह रूपों, बिंबों, प्रतीकों, शब्दों से ठिठकाती है.
कविता प्रत्याशित को – जैसे सबको पता है कि ऐसा हुआ, ऐसा होना है – अप्रत्याशित में बदलती है. मसलन सुमन जी की कविता में दौपदी कृष्ण से अपने प्रेम को स्वीकार करती है. ऐसे ही पहले भी महाभारत के चरित्र के साथ उड़िया के साहित्यकार ने प्रयोग किया है. दृष्य है कि कर्ण से मिलने द्रौपदी जाती है, तब जब वह वहां जाती है तो पहले भीष्म पितामह का शिविर पड़ता है, अब वह जायेगी तो जूते कहां रखेगी, यहां पर कृष्ण ने कहा कि तुम जाओ मैं तुम्हारे जूते की रखवाली करता हूं. अब यह अप्रत्याशित है. महाभारत ने इसे नहीं कहा लेकिन आगे के कवियों को महाभारत ने इसे कहने से रोका भी नहीं. महाकाव्य वह है जो आगे आने वाले कवियों को भी पूरी छूट देता है, मुक्ति देता है. महाकाव्य बाइबिल-कुरान-वेद नहीं है, जिसमें आप फेर-बदल न कर सकें. इसलिये धर्मग्रंथ पूज्य होते हुये भी इस अर्थ में कविता नहीं होते. अरुण जी की ‘लालटेन’ कविता सुनते हुये दो बातें याद आयीं. एक लालटेन पर एक लंबी कविता विष्णु खरे की है. एक दूसरी ‘पहाड़ पर लालटेन’ मंगलेश डबराल की. लेकिन इन्होंने जैसे लालटेन को देखा वैसा हम लोगों में से कितनों ने देखा है! अब तो लालटेन भी कितने देखते हैं! किसे याद है कि एक जमाने में हम अंग्रेजी के शब्द को पालतू बनाने के लिये उसके साथ क्या कर सकते थे. ‘लैटर्न’ को हमने लालटेन में बदल दिया. किसको अब लैटर्न-लालटेन याद! रेणु की कहानियों में दिखे, या कहीं फिर और..
एक और बात यह लगी कि सुमन जी की कविताओं में पौराणिक चरित्र बहुत सारे आये हैं और मेरी यह धारणा है कि चरित्रों से अपने आप कविता पैदा होती है. आप कुछ न कहें. कविता अपने आप आ जायेगी, ये सब चरित्र भी तो कविताजन्य चरित्र हैं. कविता ने इन्हें इतनी सघनता एवं जटिलता से रचा कि जो सचमुच ऐतिहासिक चरित्र रहे होंगे, उनसे ज्यादा सच हो गये! जैसे इन्होंने मीर का चरित्र लिया, अयोध्या पर अपनी बात कही. अयोध्या पर आम तौर पर जो कविता लिखते हैं, बहुत बने बनाये ढ़ंग से, जैसे हमारे मित्र कुंवरनाराण ने अयोध्या पर एक खराब सी कविता लिख दी है, ‘अब के जंगल वे जंगल नहीं रहे..’ ऐसे ही. अरुण की अयोध्या कविता में जो बेगम अख्तर आती है..आखिर वो कौन अयोध्या है जो बनी थी और वह कैसे खंडित हुई! यह ज्यादा मार्मिक बात है. इनकी, जैसे मीर वाली कविता है, मुझे लग रहा है कि अब कविता में नास्टेल्जिया वापस आ रहा है, यह अच्छी बात है. अब समय में इतनी व्यस्तता की हम तुम्हे ऐसा बना देंगे कि तुम दुख देखने की भी फुरसत न रखोगे, भूल जाओ कि क्या है! कविता का एक काम जब सब लोग बहुत सुखी दिखाई दे रहे हों, सफल दिखाई दे रहे हों, तब वह दूसरी ओर ध्यान दिलाये! कई बार विफलता अधिक सार्थक होती है, सफलता की तुलना में. कई बार मैने कहा है कि हिन्दी के दो बड़े कवि बहुत विफल कवि रहे हैं, मुक्तिबोध और शमशेर. वह अज्ञेय की तरह सफल कवि नहीं हैं. उनमें संप्रेषण की बहुत कठिनाइयां हैं! इसी वजह से उनकी सार्थकता है. बहरहाल..!
मुझे यह लगा कि सुमन जी की कविता में कभी कभी ज्यादा विश्लेषणपरकता आ जाती है. अरुण जी की कविता में यह कम है. कविता स्वयं में विश्लेषण हो, कविता का काम संश्लेषण है न कि विश्लेषण. बहुत ऐसे ऊबड़-खाबड़ तत्वों को आपस में मिला देना और उनसे एक नया रचाव पैदा करना. यह अप्रत्याशित भी हो सकता है. अक्सर अप्रत्याशित होता है. ..”
रिपोर्टिंग का यह दूसरा भाग प्रस्तुत है, जिसमें मुख्यतः अशोक वाजपेयी जी की कवितायेँ और उनके विचार हैं. पहले भाग में अरुण देव जी और सुमन केशरी जी की कवितायेँ एवं उसपर अशोक जी की टिप्पणी थी. कार्यक्रम में टिप्पणी देने के बाद अशोक जी ने अपनी कवितायेँ पढीं. उनहोंने कहा;
'एक जमाने में मैं भाववाचक संज्ञाओं के प्रयोग का बहुत सख्त विरोधी था. मुझे लगता था की भाववाचक संज्ञाएँ बहुत गड़बड़ करतीं हैं. लकिन बाद में मुझे लगा की उनके बिना काम ही नहीं चलता. इधर मैंने सोचा की कुछ छोटी चीजें हमारी जिन्दगी से गायब हो रही हैं, हमारे ध्यान के भूगोल से. सोचा की कुछ नजर इधर रखी जाय, इसलिए यह कविता 'टोकनी'.
इन कविताओं के अतिरिक्त भी अशोक जी ने कवितायेँ सुनाईं. इसके बात प्रश्नोत्तर का सिलसिला चला. इस दौरान जो विचार आये उन्हें भी देखें;
सर्वप्रथम संस्थापक-कविताकोश ललित जी ने टिप्पणी-रूप में अपनी जिज्ञासा रखी. उन्होंने कहा कि 'आजकल कविता पढ़ने के लिए लिखी जाती है सुनाने के लिए नहीं, जैसा आपने कहा, यह मुझे ठीक बात लगी, क्योंकि आप लोगों ने जो कवितायेँ सुनाईं उनमें - थोड़ा बेबाक होकर कहूँ तो - बोरियत आ जाती है. सुनते हुए याद आया कि हमने फैज़ को भी पढ़ा, ग़ालिब को पढ़ा, मीर को भी पढ़ा, गजल एक ऐसी विधा है जिसका हर एक सेप अपने आपमें मुकम्मल होता है लेकिन कविता की समस्या है कि वह ऊपर से नीचे तक एक ही सब्जेक्ट को फ़ालो करती है इस लिहाज से इस तरह की लम्बी कविता को अपने माइंड में प्रोसेस करना मुश्किल हो जाता है , ख़ास तौर पर तब जब कवि उसमें बहुत सारे क्लिष्ट शब्दों का इस्तेमाल किया हो. मुझे लगता है कि कविता के अन्दर साहित्य और लोकप्रियता में जो फर्क है, जिसे आजकल मंचीय कविता कहते हैं, मेरे खयाल से मंचीय कविता को इतना ज्यादा गरियाने की जरूरत नहीं है. क्योंकि वाजपेयी जी ने कहा कि कविता का मकसद होता है 'ठिठकाना', जो कविता समझ में ही न आये वह सामने वाले को कभी नहीं ठिठका सकती. जाहिर है कि जो मंचीय कविता है, लोकप्रिय कविता है, उसपर हम विचार कर सकते हैं और उसको किसी तरह अपने जीवन में जोड़ कर रख सकते हैं, यह प्रश्न नहीं टिप्पणी है!'
ललित जी की बात पर वाजपेयी जी ने उत्तर दिया:
'' मुझे लगता है कि दो-तीन बातें कहनी चाहिए. पहली बात, हमारी कविता की समझ को दो चीजों से बहुत प्रभावित हुई, खबर से और फ़िल्मी गीतों से. खबर का मतलब यह कि अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए, उस खबर का मुख्य सच तो यही है. फिर आगे इसके खुलासे हैं कि कैसे यह हुआ, मुलायम सिंह को मनाया गया..क्या क्या हुआ..आदि. दूसरी तरफ फ़िल्मी गीत हैं जिन्हें हम आज तक सुनते आये हैं जैसे कोई प्रेमी-प्रेमिका कमरे में बंद हों चाबी खो गई है, फिर आगे तमाम बाते..उसमें मुख्य बात तो यह रहती कि प्रेमी-प्रेमिका एक कमरे में बंद हैं चाबी खो गयी है, बाकी गीत इसी का खुलासा भर करता था. कविता की समझ दुर्भाग्य से ऐसी नहीं है, नहीं हो सकती. वह अपना सच आपको समोसे की तरह गप्प से खा जाने के लिए तस्तरी पर पेश नहीं कर सकती. उसका सच शुरू में ही व्यक्त नहीं हो सकता. दूसरी बात, असल में तो कविता का सच अधूरा सच है. उसमें थोड़ा सा सच आपको मिलाना पड़ेगा, अपना! इसीलिये एक ही कविता के अनेक अर्थ या अनेक व्याख्याएं संभव हैं क्योंकि उसमें आप अपनी और से कुछ जोड़ते हैं. एक अरबी कहावत है जिसको अज्ञेय जी बहुत सुनाते थे कि अगर एक किताब और एक खोपड़ी टकराए और खन्न से आवाज निकले तो यह मानने का कोई कारण नहीं है कि किताब ही खाली है!
आपने जो मंचीय कविता का जिक्र किया, पहले एक ज़माना था.. और यह हिन्दी में ही हुआ उर्दू में नहीं हुआ, उर्दू में अभी भी मुशायरे में सफल होना शायर की स्वाभाविक आकांक्षा का अंग माना जाता है. लेकिन हिन्दी में पिछले लगभग तीस-चालीस वर्ष में ऐसा विकास हुआ कि लोकप्रियता और महत्व के बीच एक बड़ी खाई बन गयी. जो महत्वपूर्ण है वह लोकप्रिय नहीं है और जो लोकप्रिय है वह महत्वपूर्ण नहीं है. अब इसके कारणों में जाने का अभी अवसर नहीं है. लेकिन ऐसा है. हमने मध्य प्रदेश में एक प्रयोग किया था शब्दों के हिसाब से.. और कविता में कुछ भी क्लिष्ट नहीं होता, या तो सटीक होता है या अ-सटीक होता है. निराला की शक्तिपूजा में शुरुआती पंक्तियाँ समस्त पद में हैं, संस्कृत का कोश देखिये तब समझ में आयेंगी. इसलिए वह कविता न हो! क्लिष्ट है! थोड़ी-बहुत मेहनत तो आपको करनी पड़ेगी!
यह जो हमने प्रयोग किया कवियों को लेकर .. कि लगभग १०० आयोजन किये होंगे, भोपाल में, इंदौर में,
ग्वालियर में, जबलपुर में, सागर में, और हमने पाया कि अगर इस तरह की कविता ठीक से पढने वाले कवि जुटाए जाएं! बहुत सारे कवि तो अपनी कविता अच्छी नहीं पढ़ते, मसलन मुक्तिबोध अपनी कविता अच्छी नहीं पढ़ते थे. शमशेर और अज्ञेय अच्छा पढ़ते थे. इसलिए पढने का भी इन कवियों को थोड़ा अभ्यास करने की जरूरत है कि क्या चाहिए, एक श्रोत्र समुदाय को अपने को संप्रेषित करने के लिए. दिक्कत कवि के साथ क्या होती है कि उसे लगता है कि लाओ लगे हाथ इसे भी सुना दे. यह लगे हाथ नहीं चलता. जैसे कुमार गन्धर्व अपने गाने का एक नक्सा बनाते थे, कागज़ पर लिखते थे, तय कर लिया कि आज तिलककामोद सुनाना है तो कोई परिवर्तन नहीं करते थे(सिर्फ मैं ही उनसे परिवर्तन करा सकता था). यह, अपने श्रोत्र-समुदाय के प्रति आदर का भाव भी होना चाहिए..जैसे मैं मानता हूँ कि पंक्तियों को दुहराना अनावश्यक है. कई बार कारण नहीं समझ में आता क्यों दुहराव है. ये सब बातें हैं! ''
आगे श्रोताओं की तरफ से सवाल हुए कि कविता हमें पूरी यात्रा तक क्यों नहीं पहुंचाती. अधूरे रास्ते पर जैसे छोड़ देती है. इसी के आगे एक सवाल आया था कि सामाजिक सरोकार का ऐसा क्या महत्व कि जिसके अभाव में किसी को श्रेष्ठ कवि की परिधि से खारिज कर दिया जाता है, विषय चयन से दूर तक यह सामाजिक सरोकार की अनिवार्य आवश्यकता का क्या सम्बन्ध है! इन बातों पर अशोक जी ने कहा:
'' हमारे तो एक बड़े कवि के बारे में यह लगभग रूढ़ है, मुक्तिबोध, जिन्होंने अपने बारे में लिखा है कि ख़त्म नहीं होती, ख़त्म नहीं होती हमारी कविता. तो इसका उत्तर यह है कि कविता से आपकी तवक्को क्या है, आप क्या चाह रहे हैं. कविता का काम आपको रास्ता दिखाना नहीं है. कम-से-कम मैं कवि के तौर पर जो देखता हूँ. मेरा काम आपको रास्ते की संभावना की तरफ सजग करना है. जो बना-बनाया रास्ता है वही रास्ता नहीं है, रचने-गढ़ने के कई विकल्प संभव हैं, उनमें से कौन सा आपको ठीक लगता है यह आप पर है. क्योंकि आपकी परिस्थितियों का तो मुझे पता नहीं!
मेरे जो ८-९ वीं के अध्यापक थे, अद्भुत अध्यापक थे, उन्हीं दिनों मैंने सार्वजनिक वक्तव्य देना शुरू किया था, वाद-विवाद आदि. उनहोंने जो मुझे कई सीखें दीं उनमें से एक सीख यह थी कि अपने श्रोताओं को प्यासा छोड़ना जरूरी है. उनके ऊपर सारा बोझ मत डाल दो, जितना वो सम्हाल न सकें. इसलिए कविता भी एक जगह ले जाकर आपको छोडती हैं, यही उसके लिए ठीक है. आपको रस्ते पर बहुत आगे तक ले जाय, ऐसी कविता होती होगी, लेकिन बहुत अच्छी कविता नहीं होती.
देखो ये सामाजिक यथार्थ, सामाजिक सरोकार आदि नए चोचले हैं. और इनका कोई विशेष अर्थ नहीं है. किसी भी समय में बहु-संख्यक कवि खराब होते हैं, थोड़े ही अच्छे होते हैं. छायावाद के समय संभवतः साढ़े चार हजार कवि रहे होंगे लेकिन बचे साढ़े चार. आधे में राम कुमार वर्मा आदि को रख दो. बाकी सब का क्या हुआ! दो तरह के कवि होते हैं, एक तो अच्छे कवि, जिनका पूरा विकास होता है जैसे मुक्तिबोध, अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, निराला आदि. दूसरे वो होते हैं जो (कोई)एक अच्छी कविता लिखते हैं. बाकी सब उनके बस का नहीं. नेमि जी ने एक बार मृत्युंजय उपाध्याय नाम के कवि को बताया, उनकी एक कविता थी कि एक आदमी की नौकरी छूट गयी और वह भाग आया, कविता है;
बगल से गुजरती लछमिनिया को देखा नहीं
...
ढिबरी जलाई नहीं
चूल्हा सुलगाया नहीं
छूट गयी नौकरी
किसी को बताया नहीं!
यह एक दृश्य है जिसमें एक व्यक्ति नौकरी छूट जाने के बाद अपनी झोपड़पट्टी में लौट आया है. यह एक अच्छी कविता है. हिन्दी में दुर्भाग्य से खोजकर लाने-दिखाने की परम्परा नहीं है. अंगरेजी में इसकी परम्परा है. मैं अभी एक किताब खरीद कर लाया जिसमें एक नन है जिसको कविता पढ़ने का शौक है. इस नन ने अपनी रूचि से सौ कवितायेँ चुनी है. उसमें ऐसी कवितायेँ हैं, कवि हैं जिनके मैंने नाम ही नहीं सुने. मैं अंगरेजी साहित्य का वैध विद्यार्थी हूँ, हिन्दी का तो अवैध हूँ, मैं खुद ही पढ़ के चौक गया उन अच्छी कविताओं को! हमारे यहाँ इस तरह से अच्छी कविताओं को बचाने का प्रयास नहीं है. इसलिए ऐसे कवि भी हैं जो संभवतः अच्छे कवि न हों लेकिन अच्छी कवितायेँ लिखे होते हैं. ''
सामाजिक सरोकार वाले मुद्दे पर प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने भी अपना मत रखा, जो इस तरह है;
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'' ये जो सामाजिक सरोकार वाली बात है, पहली बात यह की भाषा स्वयं एक सामाजिक सरोकार है. आप भाषा का प्रयोग करते हैं तो आप एक सामाजिक कर्म कर रहे होते हैं. इसलिए मैं कवि से यह उम्मीद नहीं करता की वह मेरे प्रिय सामाजिक सरोकारों पर कुछ कह रहा है या नहीं कह रहा है, लेकिन उसकी भाषा में सामाजिक तत्व होता ही है. दूसरी बात जब आप मनुष्य हैं और समाज में हैं तो आपकी चिंताओं के बीच में ऐसा साफ़-सुथरा विभाजन संभव नहीं है कि कहाँ आंतरिक जगत समात्प होता है और कहाँ बाह्य जगत आरम्भ होता है, अगर आप संवेदनशील व्यक्ति हैं तब! तीसरी बात यह है और यह कुछ विवादास्पद हो सकती है कि जो लोग सामाजिकता को आस्तीन पर चिपकाए फिरते हैं उनकी सामाजिकता हमें हमेशा संदिग्ध लगती है. कहीं न कहीं यह एक प्रचलित बाजारवाद का रूप है कि डिमांड किस चीज की है, वैसी कविता हम प्रस्तुत करें! हिन्दी के एक बहुत महत्वपूर्ण महान कवि थे जो पहले छायावादी थे, फिर प्रगतिशील हुए, फिर अध्यात्मवादी हुए, फिर अरविन्दवादी हुए, पुनः प्रगतिशील हुए और पुनः अध्यात्मवादी हुए! इसमें कोई हरज नहीं है अगर यह विकास आंतरिक दबावों और आतंरिक चिंताओं का परिणाम हो. मार्केट के दबाव में न हो. दुर्भाग्य से हिन्दी की बहुत सारी कवितायेँ बाजार की मांग के मुताबिक़ लिखी जा रही हैं. जैसे वाजपेयी जी ने `टोकनी' पर कविता लिखी, महत्वपूर्ण यह की हम सोचें, हमारी भाषा से टोकनी का गायब हो जाना, मेरे बच्चों की भाषा से टोकनी का गायब हो जाना, यह सामाजिक चिंता का विषय है या नहीं? अगर यह सामाजिक चिंता का विषय है तो कैसे वह कविता सामाजिक सरोकार की कविता नहीं है! ''
कविता के लिए प्रतिमान, उनका दायरा, उनमें विमर्श, भविष्य में वे कैसी हों, इन बातों आधारित प्रश्न के जबाब में अशोक जी ने अपना मत रखा;
'
' इस सवाल का जवाब बहुत लंबा होगा .. कुछ साल पहले मैंने एक इसपर एक टिप्पणी लिखी थी कि हमारे साहित्यिक जीवन से, साहित्यिक कृतियों से उदात्त का भाव इतना गायब क्यों है! बल्कि उदात्त शब्द का ही प्रयोग नहीं के बराबर, हिन्दी साहित्य वाले लोंजाइनस के सिलसिले में पढ़ते होंगे और मानते होंगे कुछ रहा होगा उदात्त होना इत्यादि. अब कोई उदात्त होना नहीं चाहता. जैसे कि उदात्त होना कोई पिछडापन है. जैसे कोई कृतग्य नहीं होना चाहता, वह भी उदात्तता का ही एक रूप है. जैसे कोई विराट को छूने की आकांक्षा नहीं करना चाहता. क्योंकि यह आध्यात्मिकता के खाते में है. कभी भी कोई कविता बड़ी कविता नहीं हो सकती अगर वह इन स्तरों से किसी न किसी रूप में जुड़ती न हो! हो सकता है आप उदात्त को अपना उद्देश्य घोषित न करें, जैसे मैंने एक कविता सुनाई `अपने हाथों से उठाओ पृथ्वी', उसमें आप कहें तो थोड़ा सा उदात्त होने की चेष्टा है. लेकिन इसीलिए कई बार उदात्त होता भी है तो उसे अनदेखा कर दिया जाता है. क्योंकि हमारे देखने की आँख में उदात्त शामिल नहीं है. जैसे शमशेर की कविता है, `प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे...' यह अद्भुत बिम्ब है, पूरा ब्रह्माण्ड! यह उदात्त है. `असाध्य वीणा` की कल्पना बिना उदात्तता के कैसे कर सकते हैं आप! दूसरे स्तर पर `अँधेरे में' भी वह तत्व है जिसमें वह आदमी भाग रहा है जिसके सामने प्रश्न है कि दिल्ली जाऊं या उज्जैन, उसको गांधी मिल जाते हैं, उसको तोल्स्तोय मिल जाते हैं. ये उदात्त चरित्र हैं! सीधे सीधे उदात्त नहीं! कई बार सीधे सीधे कुछ भी कहना गड्ढे में डालता है, अन्तःसलिल होना कविता में, अन्तर्ध्वनित होना, ज्यादा अच्छा है बजाय उसके बारे में मुखर होने के! .. पहचाने जाने की तुरंत की चिंता से बेहतर है की आप सोचें कि भाषा में जो आप करना चाह रहे हैं, क्या वह कर पा रहे हैं! बाकी की चिंता न करे, भवभूति जैसे कवि ने कहा था कि मैं दोनों भुजा उठा के कह रहा हूँ कि कभी-न-कभी तो होगा कोई सामान धर्मा, पृथ्वी विपुल है और काल निरवधि है!! ऐसे बहुत से कवि हुए हैं जिनकी सराहना तो क्या, हमारे यहाँ मुक्तिबोध हुए हैं जिनके जीते-जी पहला कविता संग्रह ही नहीं आया था. सत्य और सपने के बीच वही विडम्बना देखते रहिये, कोई सच बिना सपने के होता ही नहीं है!! ''