कवि के साथ :1:
Time - Friday, July 15 ,2011· 7:00pm - 8:00pm
Location - गुलमोहर हॉल, इंडिया हैबिटैट सेंटर लोधी रोड, नई दिल्ली
'कवि के साथ', इंडिया हैबिटैट सेंटर द्वारा शुरू की जा रही काव्य-पाठ की कार्यक्रम- श्रृंखला है. इसका आयोजन हर दूसरे माह में होगा.इसमें हर बार हिंदी कविता की दो पीढ़ियां एक साथ मंच पर होंगी. पाठ के बाद श्रोता उपस्थित कवियों से सीधी बातचीत कर सकते हैं.
'कवि के साथ' के पहले आयोजन में
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि कुँवर नारायण,
युवा कवि अरुण देव और अनुज लुगुन ...की कवितायें सुनने के लिए आप सभी सादर आमंत्रित हैं.
कार्यक्रम के आरम्भ में
'आज का समय और हिंदी कविता' विषय पर आशुतोष कुमार की संक्षिप्त टिप्पणी.
कवि और कविता से कविताप्रेमी हिंदी समाज का सीधा संपर्क-संवाद बढ़े, इस कार्यक्रम का यही उद्देश्य है. आप सबके सक्रिय सहयोग से ही यह आगे बढ़ सकेगा.
सूत्र धार--- सत्यानन्द निरुपम
कवि के साथ ::
१५ जुलाई की संध्या : संगम : दो पीढ़ियों का एक साथ मंच पर होना और कविता का आस्वादन अपनेआप में अनूठा अनुभव था . आज के शोर , बाज़ारवाद, अनास्था के माहौल में इन कविताओं का श्रवण सुकून देता नज़र आया. पलाश के फूलों और सरयू में कांपती अयोध्या ने सांझ को जीवंत बना दिया . हेबिटेट सेंटर का वह हॉल शब्दों के कोलाज़ में प्रकाशित था . कुंवरनारायण जी को सुनना एक उपलब्धि थी वहीँ युवा कवि अरुण और अनुज इसी उपलब्धि को सहेज कर आगे बढ़ाने वाली सशक्त कड़ी के रूप में सामने आये .
सत्यानन्द निरुपम ने प्रतिबद्ध तरीके से इस कार्यक्रम का आयोजन किया ,उन्हें विशेष रूप से बधाई. ये कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्ति जैसा है .
कुंवर जी के लिए टिप्पणी करना सूरज को दीप दिखाने जैसा है . सधी आवाज़ में जीवन के कई पहलुओं को छूती कवितायेँ , नाना रंग .. कविता की उस जादुई छतरी के नीचे पाब्लो का रूमानी स्वर सुनाई दिया तो साथ ही हिकमत का घोष . फिर हेबिटेट के उस पार्क में कवि का सहज ही यूँ गुनगुनाना :
पार्क में बैठा रहा कुछ देर तक
अच्छा लगा,
पेड़ की छाया का सुख
अच्छा लगा,
डाल से पत्ता गिरा- पत्ते का मन,
"अब चलूँ" सोचा,
तो यह अच्छा लगा...
बस सभागार में सब विस्मित थे . शब्दों की छाया में मिलता सुख .
अरुण की कविताओं का गठन अलग तरह का है . वे एक छोटे से बिंदु से उठती हैं और पूर्ण प्रकाश बनकर आपको घेर लेती हैं . आप इस उजास में घंटो बैठे रहिये , सुख बना रहेगा . शरद की धूप की तरह हैं . उनके बिम्ब भी शारदीय .
अभी भी वह बची है
इसी धरती पर
अँधेरे के पास विनम्र बैठी
बतिया रही हो धीरे –धीरे
सयंम की आग में जैसे कोई युवा भिक्षुणी
कांच के पीछे उसकी लौ मुस्काती
बाहर हँसता रहता उसका प्रकाश
जरूरत भर की नैतिकता से बंधा
ओस की बूंदों में जैसे चमक रहा हो
नक्षत्रों से झरता आलोक ...
एक लालटेन में कवि का युवा भिक्षुणी को देख लेना अचरज में डालता है और विषय का सम्यक विस्तार भी कविता को नए आयाम देता है .
अनुज लुगुन की कविताएँ आपको मूल मनुज को फिर से चालो की गुहार देती लगेंगी . उनमें मिट्टी की उपेक्षा का दर्द है , विद्रोह है और एक तीव्र स्वर है . ये आपको आश्न्वित करती हैं .
दिल्ली की मेरी ये साहित्यिक यात्रा सुखों से भरी रही . मीठा खाने का स्वाद जैसे मुंह में घुलता रहता है , उसकी तरह कविताओं का स्वाद भी ज्यों का त्यों बना हुआ है .
...अपर्णा मनोज
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